Thursday, December 31, 2009

श्री नारायण दत्त श्रीमालीजी - भाग २

श्री नारायण दत्त श्रीमालीजी - भाग २
परमपूज्य सदगुरुदेव डॉ नारायण दत्त श्रीमाली जी एक ऐसे उदात्ततम व्यक्तित्व हें, जिनके चिन्तन मात्र से ही दिव्यता का बोध होने लगता हैं। प्रलयकाल में समस्त जगत को अपने भीतर समाहित किए हुए महात्मा हिरण्यगर्भ की तरह शांत और सौम्य हैं। व्यवहारिक क्षेत्र में स्वच्छ धौत वस्त्र में सुसज्जित ये जितने सीधे-सादे से दिखाई देते हैं, इससे हट कर कुछ और भी हैं, जो सर्वसाधारण गम्य नहीं हैं। साधनाओं के उच्चतम सोपान पर स्थित विश्व के जाने-मने सम्मानित व्यक्तित्व हैं। इनका साधनात्मक क्षेत्र इतना विशालतम है, कि इसे सह्ब्दों के माध्यम से आंका नहीं जा सकता। किसी भी प्रदर्शन से दूर हिमालय की तरह अडिग, सागर की तरह गंभीर, पुष्पों की तरह सुकोमल और आकाश की तरह निर्मल हैं।

इनके संपर्क में आया हुआ व्यक्ति एक बार तो इन्हें देखकर अचम्भे में पड़ जाता हैं, कि ये तो महर्षि जह्रु की तरह अपने अन्तस में ज्ञान गंगा के असीम प्रवाह को समेटे हुए हैं।

पूज्य गुरुदेव ऋषिकालीन भारतीय ज्ञान परम्परा की अद्वितीय कड़ी हैं। जो ज्ञान मध्यकाल में अनेक-प्रतिघात के कारण अविच्छिन्न हो, निष्प्राण हो गया था, जिस दिव्य ज्ञान की छाया तले समस्त जाति ने सुख, शान्ति एवं आनंद का अनुभव किया था, जिसे ज्ञान से संबल पाकर सभी गौरवान्वित हुए थे। तथा समस्त विसंगतियों को परास्त करने में सक्षम हुए थे, जिस ज्ञान को हमारे ऋषियों ने अपनी तपः ऊर्जा से सबल एवं परिपुष्ट करके जन कल्याण के हितार्थ स्वर्णिम स्वप्न देखे थे... पूज्यपाद सदगुरुदेव श्रीमाली जी ने समाज की प्रत्येक विषमताओं से जूझते हुए, अपने को तिल-तिल जलाकर उसी ज्ञान परम्परा को पुनः जाग्रत किया है, समस्त मानव जाति को एक सूत्र में पिरोकर उन्होनें पुनः उस ज्ञान प्रवाह को साधनाओं के माध्यम से आप्लावित किया है। मानव कल्याण के लिए अपनी आंखों में अथाह करुणा लिए उन्होनें मंत्र और तंत्र के माध्यम से, ज्योतिष, कर्मकाण्डएवं यज्ञों के माध्यम से, शिविरों तथा साधनाओं के माध्यम से उन्होनें इस ज्ञान को जन-जन तक पहुंचाया हैं।
ऐसे महामानव, के लिए कुछ कहने और लिखने से पूर्व बहुत कुछ सोचना पङता है। जीवन के प्रत्येक आयाम को स्पर्श करके सभी उद्वागों से रहित, जो राम की तरह मर्यादित, कृष्ण की तरह सतत चैतन्य, सप्तर्षियों की तरह सतत भावगम्य अनंत तपः ऊर्जा से संवलित ऐसे सदगुरू डॉ नारायण दत्त श्रीमाली जी का ही संन्यासी स्वरुप स्वामी योगिराज परमहंस निखिलेश्वरानंद जी हैं। निखिल स्तवन के एक-एक श्लोक उनके इसी सन्यासी स्वरुप का वर्णन हैं।

बाहरी शरीर से भले ही वे गृहस्थ दिखाई दें, बाहरी शरीर से वे सुख और दुःख का अनुभव करते हुए, हंसते हुए, उसास होते हुए, पारिवारिक जीवन व्यतीत करते हुए या शिष्यों के साथ जीवन का क्रियाकलाप संपन्न करते हों, परन्तु यह तो उनका बाहरी शरीर है। उनका आभ्यंतरिक शरीर तो अपने-आप में चैतन्य, सजग, सप्राण, पूर्ण योगेश्वर का है, जिनको एक-एक पल का ज्ञान है और उस दृष्टि से वे हजारों वर्षों की आयु प्राप्त योगीश्वर हैं, जिनका यदा-कदा ही जन्म पृथ्वी पर हुआ करता है।

एक ही जीवन में उन्होनें प्रत्येक युग को देखा है, त्रेता को, द्वापर को, और इससे भी पहले वैदिक काल को। उनको वैदिक ऋचाएं कंठस्थ हैं, त्रेता के प्रत्येक क्षण के वे साक्षी रहे हैं।

लगभग १५०० वर्षों का मैं साक्षीभूत शिष्य हूँ, और मैंने इन १५०० वर्षों में उन्हें चिर यौवन, चिर नूतन एक सन्यासी रूम में देखा है। बाहरी रूप में उन्होनें कई चोले बदले, कई स्थानों में जन्म लिया, पर यह मेरा विषय नहीं था, मेरा विषय तो यह था, कि मैं उनके आभ्यन्तरिक जीवन से साक्षीभूत रहूं, एक संन्यासी जीवन के संसर्ग में रहूं और वह संन्यासी जीवन अपन-आप उच्च, उदात्त, दिव्य और अद्वितीय रहा हैं।

उन्होनें जो साधनाएं संपन्न की हैं, वे अपने-आप में अद्वितीय हैं, हजारों-हजारों योगी भी उनके सामने नतमस्तक रहते हैं, क्योंकि वे योगी उनके आभ्यन्तरिक जीवन से परिचित हैं, वे समझते हैं कि यह व्यक्तित्व अपने-आप में अद्वितीय हैं, अनूठा हैं, इनके पास साधनात्मक ज्ञान का विशाल भण्डार हैं, इतना विशाल भण्डार, कि वे योगी कई सौ वर्षों तक उनके संपर्क और साहचर्य में रहकर भी वह ज्ञान पूरी तरह से प्राप्त नहीं कर सके। प्रत्येक वेद, पुराण , स्मृति उन्हें स्मरण हैं, और जब वे बोलते हैं, तो ऐसा लगता है जैसे स्वयं ब्रह्मा अपने मुख से वेद उच्चारित कर रहे हों, क्योंकि मैंने उनके ब्रह्म स्वरुप को भी देखा हैं, रुद्र स्वरुप को भी देखा है, और रौद्र स्वरुप का भी साक्षी रहां हू।

आज भी सिद्धाश्रम का प्रत्येक योगी इस बात को अनुभव करता है, की 'निखिलेश्वरानंद' जी नहीं है, तो सिद्धाश्रम भी नहीं है, क्योंकि निखिलेश्वरानंद जी उस सिद्धाश्रम के कण-कण में व्याप्त है। वे किसी को दुलारते हैं, किसी को झिड करते हैं, किसी को प्यार करते हैं, तो केवल इसलिए की वे कुछ सीख लें, केवल इसलिए की वे कुछ समझ ले, केवल इसलिए कि वह जीवन में पूर्णता प्राप्त कर ले, और योगीजन उनके पास बैठ कर के अत्यन्त शीतलता का अनुभव करते हैं। ऐसा लगता है, कि एक साथ ब्रह्मा, विष्णु और महेश के पास बैठे हों, एक साथ हिमालय के आगोश में बैठे हों, एक साथ सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को समेटे हुए जो व्यक्तित्व हैं, उनके पास बैठे हों। वास्तव में 'योगीश्वर निखिलेश्वरानन्द' इस समस्त ब्रह्माण्ड की अद्वितीय विभूति हैं।

राम के समय राम को पहिचाना नहीं गया, उस समय का समाज राम की कद्र, उनका मूल्यांकन नहीं कर पाया, वे जंगल-जंगल भटकते रहे। कृष्ण के साथ भी ऐसा हुआ, उनको पीड़ित करने की कोई कसार बाकी नहीं राखी और एक क्षण ऐसा भी आया, जब उनको मथुरा छोड़ कर द्वारिका में शरण लेनी पडी और उस समय के समाज ने भी उनकी कद्र नहीं की। बुद्ध के समय में जीतनी वेदना बुद्ध ने झेली, समाज ने उनकी परवाह नहीं की। महावीर के कानों में कील ठोक दी गईं, उन्हें भूकों मरने के लिए विवश कर दिया गया, समाज ने उनके महत्त्व को आँका नहीं।

यदि सही अर्थों में 'श्रीमाली जी' को समझना है, तो उनके निखिलेश्वरानन्द स्वरुप समझना पडेगा। इन चर्म चक्षुओं से उन्हें नहीं पहिचान सकते, उसके लिए, तो आत्म-चक्षु या दिव्या चक्षु की आवश्यकता हैं।

मैंने ही नहीं हजारों संन्यासियों ने उनके विराट स्वरुप को देखा है। कृष्ण ने गीता में अर्जुन को जिस प्रकार अपना विराट स्वरुप दिखाया, उससे भी उच्च और अद्वितीय ब्रह्माण्ड स्वरुप मैंने उनका देखा है, और एहेसास किया है कि वे वास्तव में चौसष्ट कला पूर्ण एक अद्वितीय युग-पुरूष हैं, जो किसी विशेष उद्देश्य को लेकर पृथ्वी गृह पर आए हैं। मैं अकेला ही साक्षी नहीं हूं, मेरे जैसे हजारों संन्यासी इस बात के साक्षी हैं, कि उन्हें अभूतपूर्व सिद्धियां प्राप्त हैं। भले ही वे अपने -आप को छिपाते हों, भले ही वे सिद्धियों का प्रदर्शन नहीं करते हों, मगर उनके अन्दर जो शक्तियां और सिद्धियां निहित हैं, वे अपने-आप में अन्यतम और अद्वितीय हैं।

एक जगह उन्होनें अपनी डायरी में लिखा हैं --

"मैं तो एक सामान्य मनुष्य की तरह आचरण करता रहा, लोगों ने मुझे भगवान् कहा, संन्यासी कहा, महात्मा कहा, योगीश्वर कहा, मगर मैं तो अपने आपको एक सामान्य मानव ही समझता हूँ। मैं उसी रूप में गतिशील हूं, लोग कहें तो मैं उनका मुहबन्द नहीं सकता, क्योंकि जो जीतनी गहराई में है, वह उसी रूप में मुझे पहिचान करके अपनी धारणा बनाता हैं। जो मुझे उपरी तलछट में देखता है, वह मुझे सामान्य मनुष्य के रूप में देखता हैं, और जो मेरे आभ्यंतरिक जीवन को देखता है, वह मुझे 'योगीश्वर' कहता है, 'संन्यासी' कहता है। यह उनकी धारणा है, यह उनकी दृष्टि है, यह उनकी दूरदर्शिता है। जो मेरी आलोचना करते हैं, उनको भी मैं कुछ नहीं कहता, और जो मेरा सम्मान करते हैं, मेरी प्रशंसा करते हैं, उनको भी मैं कुछ नहीं कहता, और जो मेरा सम्मान करते हैं, मेरी प्रशंसा करते हैं, उनको भी मैं कुछ नहीं कहता, क्योंकि मैं सुख-दुःख, मान-अपमान इन सबसे सर्वथा परे हूं।

मैंने कोई दावा नहीं किया, कि मैं दस हजार वर्षों की आयु प्राप्त योगी हूं, और न ही मैं ऐसा दावा करता हूं, कि मैंने भगवे वस्त्र धारण कर संन्यासी रूप में विचरण किया, हिमालय गया, सिद्धियां प्राप्त कीं, या मैं कोई चमत्कारिक व्यक्तित्व या मैं कोई अद्वितीय कार्य संपन्न किया है। मैं तो एक सामान्य मनुष्य हूं और सामान्य मनुष्य की तरह ही जीवन व्यतीत करना चाहता हूं।" डायरी के ये अंश उनकी विनम्रता है, यह उनकी सरलता है, परन्तु जो पहिचानने की क्षमता रखते हैं - उनसे यह छिपा नहीं है, के वे ही वह अद्वितीय पुरूष हैं, तो कई हजार वर्षों बाद पृथ्वी पर अवतरित होते हैं।
--योगी विश्वेश्रवानंद

श्री नारायण दत्त श्रीमालीजी - भाग ४

श्री नारायण दत्त श्रीमालीजी - भाग ४

सिद्धाश्रम के संचालक, 'परमहंस स्वामी सच्चिदानन्द जी है', वे तो अपने-आप में अन्यतम,अद्वितीय विभूति हैं, समस्त देवताओं, के पुंञ्ज से एकत्र होकर के उनका निर्माण हुआ है, सब देवताओं ने अपना-अपना अंश देकर के ऐसे अदभुद व्यक्तित्व का विकास किया है, जिन्हें सच्चिदानन्द जी कहते हैं।

परमहंस, प्रातः स्मरणीय 'पूज्यपाद स्वामी सच्चिदानन्द जी' के आशीर्वाद तले ऐसा सिद्धाश्रम गतिशील है, जहां की माटी कुंकुम की तरह है, जिसे ललाट पर लगाने की इच्छा की जाती है, जहां पर महाभारत काल और त्रेता युग के योगी व् सन्यासी निरंतर विचरण करते हैं, गतिशील हैं।

सच्चिदानन्द जी ने हजारों साल के अपने जीवन में केवल तीन ही शिष्य बनाएं हैं, अत्यन्त कठोर उनकी क्रिया है, जो उन क्रियाओं पर खरा उतरता है, उसे वे अपना शिष्यत्व प्रदान करते हैं। पूज्य गुरुदेव ऐसे ही अदभुद व्यक्तित्व हैं, जिन्होनें पूर्णता के साथ 'स्वामी सच्चिदानन्द जी' से दीक्षा प्राप्त की हैं, और पूरा सिद्धाश्रम ही नहीं वरन पूरा ब्रह्माण्ड इस बात के लिए गौरवान्वित है, कि वे 'स्वामी सच्चिदानन्द जी' के शिष्य है।

सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड जिनका विचरण स्थल है
यही नहीं अपितु कई संन्यासियों ने उन्हें इंद्र लोक, पाताल लोक, सूर्य लोक, चन्द्रमा तथा अन्य लोकों में विचरण करते हुए देखा है। शुक्र ग्रह में कई योगी उनके साथ गाएं हैं, क्योंकि ये सूक्ष्म शरीर को इतना उंचा उठा लेते है, कि ये ब्रह्माण्ड का एक भाग बन जाते हैं, और उस भाग से वे समस्त ग्रहों में विचरण करते रहते हैं, उनका बाहरी शरीर यहीं पडा रहता हैं एक सामान्य शरीर की तरह, मगर आभ्यातारिक शरीर समस्त ग्रहों का प्रतिनिधित्व करता है। शुक्र गृह में उनको देखने के लिए लोग मचल पड़ते हैं, दौड़ते हैं, और उनकी एक झलक देख कर वे अपने-आप को परम सौभाग्यशाली समझते हैं।

मैंने उनके साथ उन लोकों की भी यात्रा की हैं, और यह देखा है कि वे जितने मृत्यु लोक में प्रिय हैं, जितने सिद्धाश्रम में प्रिय हैं, उससे भी ज्यादा शुक्र गृह और अन्य लोकों में प्रिय हैं। सभी लोकों में निरंतर प्रतीक्षा होती रहती हैं। जहां भी मैंने उनको देखा हैं, ऐसा लगता हैं कि यह पुरे ब्रह्माण्ड में बिखरा हुआ व्यक्तित्व है। कोई एक गृह या एक स्थान ही उनको महत्त्व नहीं देता, अपितु पुरे ब्रह्माण्ड का प्रत्येक गृह उनको महत्त्व देता है। वे अत्यन्त सूक्ष्म शरीर धारण कर सकते हैं और विराट स्वरुप भी धारण कर सकते हैं। वे एक ही क्षण में एक स्थान से दुसरे स्थान पर जाने का सामर्थ्य रखते हैं। वे हिमालय की उंची-उंची चोटियों पर उसी पारकर विचरण करते हैं, जैसे मैदान में चल रहे हों, तथा गहन और गहन गुफाओं में मैंने उनको निरंतर साधना करते हुए अनुभव किया हैं।
साबर साधनाओं के अन्यतम योगी
साबर साधनाएं जीवन की सरल, सहज और मत्वपूर्ण साधना है। ऐसी साधनाएं हैं जिनमे जटिल विधि विधान नहीं है जिनमे लम्बा-चौड़ा विस्तार नहीं है, जिनमे सूक्ष्म-श्लोक संस्र्कुत नहीं अपितु सरल भाषा है। संसार की आठ क्रियाएं ऐसी है जो कई हजार वर्ष पहले पूर्व विकास पर थी परन्तु आज ये विद्याएं प्रायः लुप्त हैं और शायद ही उनके बारे में योगियों को जानकारी होगी। सिद्धाश्रम में इनके बारे में निरंतर शोध हो रही हैं और उन चिन्तनों तथा साधना विधियों को ढूं ढूं निकाला गया है।

मैंने देखा कि इस व्यक्तित्व में असीम प्राण चेतना है, सत्य और वास्तविकता से झुठलाकर इसे दबाया नहीं जा सकता। प्रहार कर इसकी गति को अवरुद्ध नहीं किया जा सकता बहलाकर इसे चुप नहीं किया जा सकता। इसके मन में भारत वर्ष के प्रति आसीम त्याग और आगाध श्रद्धा है। यह भारतवर्ष को पुनः उस स्थिति में ले जाना चाहता है जो कि इसका वास्तविक स्वरुप है। वह ऋषि मुनियों के मन्त्रों साधनाओं और सिद्धियों को सही तरीके से पुनः स्थापित करना चाहता है। ज्योतिष। और आयुर्वेद के खोये हुए स्थान को पुनः दिलाना चाहता है।

उनको देखते ही ऐसा आभास होता है कि जैसे प्राचीन समय का आर्य अपनी पूर्ण शारीरिक क्षमता और ज्ञान गरिमा को लेकर साकार है। शरीर लम्बा-चौड़ा, आकर्षक और चुम्बकीय नेत्र, वाणी में गंभीरता और गरिमा, दृढ़तायुक्त सिंहवत चाल और ह्रदय में पौरुष यह सब मिलाकर एक ऐसे व्यक्तित्व का निर्माण करते हैं जिन्हें हमें अपने जीवन में आर्य कहा है, जो हमारे सही अर्थों में पूर्वज है।

यह व्यक्तित्व अंत्यंत ही सरल, सौम्य और सहज है, किसी प्रकार का आडम्बर या प्रदर्शन इनके जीवन में नहीं हैं, आतंरिक और बाह्य जीवन में किसी प्रकार का कोई लुकाव छिपाव नहीं हैं, जो कुछ जीवन में है वही यथार्थ में है, और यही इसकी विशेषता है।

कभी-कभी तो इनके इस सरल व्यक्तित्व को देखकर खीज होती है। इतने उच्चकोटि का योगी, इतना सरल सहज और सामान्य जीवन व्यतीत करता है कि इन्हें देखकर विश्वास नहीं होता कि यह साधनों के क्षेत्र में अप्रतिम है। सिद्धियों का हजारवा हिस्सा भी यदि किसी के पास होता है तो वह अहम् के मद में चूर रहता धरती पर पांव ही नहीं रहता।

ज्योतिर्विज्ञान के पुरोधा
ज्योतिष के क्षेत्र में स्वामी निखिलेश्वरानंद जी ने जो काम किया है, वह पूर्ण साधनात्मक संस्था भी नहीं कर सकती। उन्होनें अकेले जितना और जो कुछ कार्य किया है उसे देखकर आश्चर्य होता है। ज्योतिष की दृष्टि से जन्म कुण्डली में दुसरा भाव द्रव्य से सम्बंधित है। और स्वामी जी ने ज्योतिष के नविन सूत्रों की रचना की। ज्योतिष के उन सिद्धांतों को प्रतिपादित किया जो आज के युग के अनुरूप है, जो वर्त्तमान सामाजिक व्यवस्था में सही है उन छोटे-छोटे ग्रंथों के माध्यम से उन्होनें पुरे देश में एक चेतना पैदा की। ज्योतिष के प्रति उनके मन में चाह उत्पन्न की, उन्हें विश्वास दिलाया, ज्योतिष के क्षेत्र में नविन कार्य हुए, बिखरे हुए ज्योतिषियों को एक मंच दिया, उन्हें यह समझाया कि यह विज्ञान तभी सफल हो ससकता है जब इसे पूर्ण समर्पित भाव से किया जाए।

आयुर्वेद का आधारभूत व्यक्तित्व
आयुर्वेद के क्षेत्र में योगिराज पूज्य गुरुदेव जी का योगदान बेजोड़ है। यदि वास्तविक दृष्टि से देखे, तो ज्योतिष और आयुर्वेद दो ही विद्याएं भारतवर्ष के पास थी जिसमें वह पुरे विश्व का अग्रणी था। आज भी विज्ञान के क्षेत्र में विश्व भले ही बहुत आगे बढ़ गया हो, उन्होनें नई से नई टेक्नोलॉजी प्राप्त कर ली है परन्तु इन दोनों क्षेत्रों में आज भी पूरा विश्व भारतवर्ष की और ही देखता है।

सबसे बड़ी विडम्बना यह थी कि आयुर्वेद के प्रामाणिक ग्रन्थ तो लगभग लुप्त हो गए थे, जो कुछ ग्रन्थ बच गए थे, उनमें जिन जड़ी-बूटियों का विवरण का वर्णन मिलता था वे आज के युग में ज्ञात नहीं थी। उस समय पर वनौषधियों को संस्कृत नाम से पुकारते थे परन्तु आज उन शब्दों से परिचय ही नहीं है, इसीलिए उन वनौषधियों की न पहिचान हो रही थी और न उसकी सही अर्थों में उपयोग ही हो रहा था।

यह अपने आप में अंधकारपूर्ण स्थिति थी। ऐसी स्थिति में किसी भी वनस्पति को किसी भी नाम की सज्ञा दे दी जाती थी। उदाहरण के लिए तेलियाकंद भारतवर्ष की एक अदभुदएवं आश्चर्यजनक गुणों से युक्त दिव्या औषधि है। पर पीछ वैध सम्मलेन में लगभग १८ व्यक्तोयों ने १८ प्रकार के विभिन्न पौधे लाकर उस सम्मलेन में रखे और सभी ने इस बात को सिद्ध करने का प्रयत्न किया किउसने जिस पौधे की खोज की है वह प्रामाणिक और असली तेलियाकंद है जिसका विवरण वर्णन प्राचीन आयुर्वेद ग्रंथों में मिलता है। जबकि वास्तविकता यह थी, कि उसमें से एक भी पौधा तेलियाकंद नहीं था।

ऐसी स्थिति में निखिलेश्वरानंद जी ने उन प्राचीन जड़ी-बूटियों को खोज निकाला, जिसका विवरण वर्णन प्राचीन ग्रंथों में मिलता है उनके चित्र गुन धर्म पहचान आदि की विस्तृत व्याख्या कर समझाया और उन जड़ी-बूटियों से आयुर्वेद जगत को परिचित कराया।

स्वामी निखिलेश्वरानन्द जी का आधिकांश समय हिमांचल में व्यतीत हुआ है और वे हिमालय के चप्पे-चप्पे से परिचित हैं। प्रत्येक स्थान, उसकी महत्ता उसकी भौगोलिक और पौराणिक स्थिति का ज्ञान तो स्वामी जी को है ही, साथ ही साथ वहां मिलने वाली जड़ी-बूटियों और पेड़-पौधों को भी उन्हें विस्तृत ज्ञान है।

आप ने एक शिष्य के सहयोग से नैनीताल और रानीखेत के बीच एक बहुत बड़ा फार्म तैयार करवाया है जो लगभग एक मील चौड़ा और ढाई मील लंबा है। इस पुरे फार्म में उन दुर्लभ जड़ी-बूटियों को उगाने का प्रयास किया है जो धीरे धीरे लुप्त होती जा रही है। हिमालय के सुदूर अंचल से ऐसे पौधे लाकर वहां स्थापित करने का प्रयत्न किया है। उन्होनें एक छोटी सी पुस्तिका भी लिखी है जिसमें उन्होनें उन ६४ दुर्लभ जड़ी-बूटियों का परिचय दिया है जिनका धीरे धीरे लोप हो रहा है। यदि समय रहते उनका सवर्द्वन नहीं हो सका तो निश्चय ही वे पौधे समाप्त हो जायेंगे।

इतना व्यस्त व्यक्तित्व होते हुए भी ऐसे पौधों के प्रति उनका ममत्व देखते ही बनाता है। उन्होनें कुछ पौधों को हिमालय की बहुत ही ऊंचाई से प्राप्त कर बड़ी कठिनाई से उस फार्म में आरोपित किया है और उनका पालन पोषण उसी प्रकार से किया जैसे कि मां अपने शिशु का करती है।

उन्होनें कहां प्रकृति हामारी शत्रु या प्रतिस्पर्धी नहीं अपितु सहायक है। उसके साथ द्वंद्व करके सफलता नहीं पाई जा सकती है, अपितु उसके साथ समन्वय करके ही सिद्धि प्राप्त हो सकती है। इसी स्थिति को और सिद्धांत को ध्यान में रखकर पूज्य गुरुदेव ने जो साधनाएं स्पष्ट की, उनके माध्यम से योगियों नें आसानी से प्रकृति पर विजय प्राप्त की।
- स्वामी विश्वेश्रवानंद

परमहंस स्वामी निखिलेश्वरानन्द जी का व्यक्तित्व अपने-आप में अप्रतिम, अदभुतऔर अनिर्वचनीय रहा है। उनमें हिमालय सी ऊंचाई है, तो सागरवत गहराई भी; साधना के प्रति वे पूर्णतः समर्पित व्यक्तित्व हैं, तो जीवन के प्रति उन्मुक्त सरल और सहृदय भी; वेद, कर्मकांड और शास्त्रों के प्रति उनका अगाध और विस्तृत ज्ञान है, तो मंत्रों और तंत्रों के बारे में पूर्णतः जानकारी भी। यह एक पहला ऐसा व्यक्तित्व है जिसमें प्रत्येक प्रकार की साधनाएं समाहित हैं, उच्चकोटि के वैदिक और दैविक साधनाओं में जहां वे अग्रणी हैं, वहीं औघड शमशान और साबर साधनाओं में भी अपने-आप में अन्यतम हैं।

मैंने उन्हें हजारों-लाखों की भीड़ में प्रवचन देते हुए सूना है। उनका मानस अपने-आप में संतुलित है, किसी भी विषय पर नपे-तुले शब्दों में अजस्त्र, अबाध गति से बोलते रहते हैं। लीक सी एक इंच भी इधर-उधर नहीं हटते। मूल विषय पर, विविध विषयों की गहराई उनके सूक्ष्म विवेचन और साधना सिद्धियों को समाहित करते हुए वे विषय को पूर्णता के साथ इस प्रकार प्रस्तुत करते हैं, कि सामान्य मनुष्य भी सुनकर समझ लेता है और मंत्रमुग्ध बना रहता है।

मैं उनके संन्यास और गृहस्थ दोनों ही जीवन का साक्षी हूंहजारों संन्यासियों के भीड़ में भी उन्हें बोलते हुए सूना है उच्चस्तरीय विद्वत्तापूर्ण शुद्ध सुसंस्कृत में अजस्त्र, अबाध रूप से और गृहस्थ जीवन में भी उन्हें सरल हिन्दी में बोलते हुए सूना है - विषय को अत्याधिक सरल ढंग से समझाते हुए बीच-बीच में हास्य का पुट देते हुए मनोविनोद के साथ अपनी बात वे श्रोताओं के ह्रदय में पूर्णता के साथ उतार देते हैं।

मुझे उनका शिष्य बनने का सौभाग्य मिला है और मैं इसमें अपने-आप को गौरवान्वित अनुभव करता हूं। उनके साथ काफी समय तक मुझे रहने का सुअवसर प्राप्त हुआ है, मैंने उनके अथक परिश्रम को देखा है, प्रातः जल्दी चार बजे से रात्री को बारह बजे तक निरंतर कार्य करते हुए भी उनके शरीर में थकावट का चिन्ह ढूंढने पर भी अनुभव नहीं होता।

वे उतने ही तरोताजा और आनंदपूर्ण स्थिति में बने रहते हैं, उनसे बात करते हुए ऐसा लगता है कि जैसे हम प्रचण्ड ग्रीष्म की गर्मी से निकलकर वट वृक्ष की शीतल छाया में आ गए हों, उनकी बातचीत से मन को शान्ति मिलती है जैसे कि पुरवाई बह रही हो, और सारे शरीर को पुलक से भर गई हो।

जीवंत व्यक्तित्व
ऐसे ही अद्वितीय वेदों में वर्णित सिद्धाश्रम के संचालक स्वामी सच्चिदानन्द जी के प्रमुख शिष्य योगिराज निखिलेश्वरानंद है, जिन पर सिद्धाश्रम का अधिकतर भार है। वे चाहे संन्यासी जीवन में हो और चाहे गृहस्थ जीवन में, रात्री को निरंतर नित्य सूक्ष्म शरीर से सिद्धाश्रम जाते हैं, वहां की संचालन व्यवस्था पर बराबर दृष्टि रखते हैं। यदि किसी साधक योगी या संन्यासी की कोई साधना विषयक समस्या होती है तो उसका समाधान करते हैं और उस दिव्य आश्रम को क्षण-क्षण में नविन रखते हुए गतिशील बनाए रखते हैं। वास्तव में ही आज सिद्धाश्रम का जो स्वरुप है उसका बहुत कुछ श्रेय स्वामी निखिलेश्वरानंद जी को है, जिनके प्रयासों से ही वह आश्रम अपने-आप में जीवंत हो सका।

आयुर्वेद के क्षेत्र में भी उन्होनें उन प्राचीन जडी-बूटियों पौधों और वृक्षों को ढूंढ निकाला है जो कि अपने-आप में लुप्त हो गए थे। वैदिक और पौराणिक काल में उन वनस्पतियों का नाम विविध ग्रंथों में अलग है परन्तु आप के युग में वे नाम प्रचलित नहीं हैं। अधिकांशजडी-बूटियां काल के प्रवाह में लुप्त हो गई थी।

अपने फार्म में उसी प्रकार का वातावरण बनते हुए उन जडी-बूटियों को पुनः लगाने और विकसित करने का प्रयास किया। मील से भी ज्यादा लम्बा चौडा ऐसा फार्म आज विश्व का अनूठा स्थल है, जहां पर ऐसी दुर्लभ जडी-बूटियों को सफलता के साथ उगाने में सफलता प्राप्त की है, जिनके द्वारा असाध्य से असाध्य रोग दूर किए जा सकते हैं। उनके गुण दोषों का विवेचन, उनकी सेवन विधि, उनका प्रयोग और उनसे सम्बंधित जीतनी सूक्ष्म जानकारी उनको है वह अपने आप में अन्यतम हैं।

पारद के सोलह संस्कार हे नहीं, अपितु चौवन संस्कार द्वारा उन्होनें सिद्ध कर दिया कि इस क्षेत्र में उन्हें जो ज्ञान है वह अपने-आप में अन्यतम है। एक धातु से दुसरे धातु में रूपांतरित करने की विधियां उन्होनें खोज निकाली और सफलतापूर्वक अपार जन समूह के सामने ऐसा करके उन्होनें दिखा दिया कि रसायन क्षेत्र में हम आज भी विश्व में अद्वितीय हैं। कई शिष्यों नें उनके सान्निध्य में रसायन ज्ञान प्राप्त किया है और ताम्बे स्व स्वर्ण बनाकर इस विद्या को महत्ता और गौरव प्रदान किया है।

सिद्धाश्रम के प्राण

सिद्धाश्रम देवताओं के लिए भी दुर्लभ और अन्यतम स्थान है। जिसे प्राप्त करने के लिए उच्चकोटि के योगी भी तरसते हैं। प्रयेक संन्यासी अपने मन में यही आकांक्षा पाले रहता कि जीवन में एक बार सिद्धाश्रम प्रवेश का अवसर मिल जाय। यह शाश्वत पवित्र और दिव्य स्थल, मानसरोवर और कैलाश से भी आगे स्थित है, जिसे स्थूल दृष्टी से देखा जाना सम्भव नहीं। जिनके ज्ञान चक्षु जागृत हैं, जिनके ह्रदय में सहस्रार का अमृत धारण है, वही ऐसे सिद्ध स्थल को देख सकता है।

ऋग्वेद से भी प्राचीन यह स्थल अपने-आप में महिमामण्डितहै। विश्व में कई बार सृष्टि का निर्माण हुआ और कई बार प्रलय की स्थिति बनी, पर सिद्धाश्रम अपने-आप में अविचल स्थिर रहा। उस पर न काल का कोई प्रभाव पड़ता है न वातावरण अथवा जलवायु का। वह इन सबसे परे आगम्यऔर अद्वितीय है। ऐसे स्थान पर जो योगी पहुंच जाता है, वह अपने आप में अन्यतम और अद्वितीय बन जाता है।

महाभारत कालीन भीष्म, कृपाचार्य, युधिष्ठिर, भगवान् कृष्ण, शंकराचार्य, गोरखनाथ आदि योगी आज भी वहां सशरीर विचरण करते देखे जा सकते हैं, अन्यतम योगियों में स्वामी सच्चिदानन्द जी, महर्षि भृगु आदि हैं, जिनका नाम स्मरण ही पुरे जीवन को पवित्र और दिव्य बनने के लिए पर्याप्त है।

यह मीलों लंबा फैला हुआ सिद्धि क्षेत्र अपने-आप में अद्वितीय है। जहा न रात होती है और न दिन। योगियों के शरीर से निकलने वाले प्रकाश से यह प्रतिक्षण आलोकित रहता है। गोधूली के समय जैसा चित्तार्शक दृश्य और प्रकाश व्याप्त होता है ऐसा प्रकाश वहां बारहों महीने रहता है। उस धरती पर सर्दी गर्मी आदि का कोई प्रभाव प्रतीत नहीं होता। ऐसे सिद्धाश्रम पर रहने वाले योगी कालजयी होते हैं, उन पर ज़रा मृत्यु आदि का प्रभाव व्याप्त नहीं होता।

यह उनके ही प्रबल पुरुषार्थ का फल है कि सिद्धाश्रम अपने-आप में जीवन्त स्थल है, जहां मस्ती आनन्द, उल्लास, उमंग और हलचल है गति है जहां चेतना और आज सिद्धाश्रम को देखने पर ऐसा लगता हैं कि यह नन्दन कानन से भी ज्यादा सुखकर और आनन्ददायक है।

एक मृतप्राय सा सिद्धाश्रम उनके आने से ही आनन्दमय हो गया और सही अर्थों में सिद्धाश्रम बन गया। सिद्धाश्रम में उच्चकोटि के योगी वशिष्ठ, विश्वामित्र, गर्ग, कणाद, आद्य शंकराचार्य, कृष्ण आदि सभी विद्यमान हैं। उच्चकोटि के योगी पृथ्वी पर अपना कार्य पूरा करने के बाद यह बाहरी नश्वर शरीर छोड़ कर हमेशा हमेशा के लिए सिद्धाश्रम चले जाते हैं। सिद्धाश्रम के श्रेष्ठ योगीजन आंखें बिच्चा बैठे रहते हैं, कि कब निखिलेश्वरानंद जी आएं और उनकी चरण धूलि मिले, ऋषि-मुनि अपनी साधनाएं बीच में ही रोककर उस स्थान पर खड़े हो जाते हैं, जहां से निखिलेश्वरानन्द जी गुजरने वाले होते हैं। प्रकृति भी अपने आप में नृत्यमय हो जाती है, क्योंकि सिद्धाश्रम जिस प्राणश्चेतना से गतिशील है, उसी प्राणश्चेतना के आधार हैं, निखिलेश्वरानंद जी।

सिद्धाश्रम, जहां उच्चकोटि की अप्सराएं निरंतर अपने नृत्य से, अपने गायन से, अपने संगीत से पुरे सिद्धाश्रम को गुंजरित बनाएं रखती हैं। एक अदभुद वातावरण है वहां का, ऐसा लगता है, जैसे स्वर्ग भी इसके सामने तुच्छ है और वास्तव में ही स्वर्ग और इंद्र लोक अत्यधिक तुच्छ हैं इस प्रकार के सिद्धाश्रम के सामने, जहां सिद्धयोगा झील गतिशील है, जिसमे स्नान करने से ही समस्त रोग मिट जाते हैं, जिसके किनारे बैठने से ही अपने-आप में सम्पूर्ण पवित्रता का बोध हो जाता है, उसमें अवगाहन करने से ही पूर्ण शीतलता और शान्ति महसूस होने लगती है, इसमें स्नान करने से ही इस देह को, जिस देह में हम गतिशील हैं, तुरंत भान हो जाता है, कि हम पांच हजार साल पहले कौन थे? या तो इस प्रकार के उच्चकोटि के योगियों के पास बैठने से उनके द्वारा ज्ञात हो सकता है या फिर सिद्धयोगा झील में स्नान करने से स्मरण हो जाता हैं।

मैं उनके इस जीवन का साक्षी रहां हूं, और आत्री, कणाद, गौतम, वशिष्ठ सदृश उच्चकोटि के योगी भी निखिलेश्वरानंद जी के व्यक्तित्व को देखकर आल्हादित और रोमांचित हो उठाते हैं। उनके जीवन का स्वप्न ही यह रहता है, कि निखिलेश्वरानंद जी के साथ रहे, उनसे बात-चीत करें और उनकी बात-चीत के प्रत्येक अंश में कोई न कोई साधना निहित रहती हैं। वास्तव में देखा जाए, तो वे योगियों में परम श्रेष्ठ, अदभुद, तेजस्वी एवं अद्वितीयता लिए हुए महामानव हैं।

जो योगीजन उनके साथ सिद्धाश्रम गए हैं, उन्होनें उनके व्यक्तित्व को पहिचाना है। उन्होनें देखा है, कि हजारों साल कि आयु प्राप्त योगी भी, जब 'स्वामी निखिलेश्वरानन्द जी' सिद्धाश्रम में प्रवेश करते हैं, तो अपनी तपस्या बीच में ही भंग करके खड़े हो जाते हैं, और उनके चरणों को स्पर्श करने के लिए एक रेलम-पेल सी मच जाती है, चाहे साधक-साधिकाएं हों, चाहे योगी हों, चाहे अप्सराएं हों, सभी में एक ललक, एक ही पुलक, एक ही इच्छा, आकांक्षा होती है, कि 'स्वामी निखिलेश्वरानन्द जी' के चरणों को स्पर्श कर लिया जाए, जो गंगा की तरह पवित्र हैं, जो कि अपने-आप में पूज्य हैं, जिनके चरण-स्पर्श अपने-आप में वन्दनीय हैं, जो कि अपने-आप में पूज्य हैं, जिनके चरण-स्पर्श अपने-आप में ही अहोभाग्य हैं, और वे जिस रास्ते से गुजर जाते हैं, जहां-जहां उनके चरण-चिन्ह पड़ते हैं, वहां की धूलि उठाकर उच्चकोटि के संन्यासी, योगी ओने ललाट पर लगाते हैं, साधिकाएं उस माटी को चंदन की तरह अपने शरीर मर लगाती हैं और अपने आप को धन्य-धन्य अनुभव करती हैं।

वे किसी को भी अपने साथ सिद्धाश्रम ले जा सकते हैं, चाहे वह किसी भे जाती, वर्ग, भेद, वर्ण, लिंग का स्त्री, पुरूष हो, इसके लिए सिद्धाश्रम से उन्हें एक तरंग प्राप्त होती है, एक आज्ञा प्राप्त होती है, फिर स्वामी निखिलेश्वरानन्द जी उस व्यक्तित्व को चाहे उसने साधना की हो या न की हो, अपने साथ ले जाते हैं, परन्तु उनके साथ वही जा सकता हैं, जो भाव से समर्पित शिष्य हो।

योगी विश्वेश्रवानंद

चौरासी लाख योनियों में जीव जन्म लेते-लेते अंत में मनुष्य को जन्म मिलता है। Partt 1

श्री नारायण दत्त श्रीमालीजी - भाग १

चौरासी लाख योनियों में जीव जन्म लेते-लेते अंत में मनुष्य को जन्म मिलता है। मनुष्य योनी में भी जीवन के अनेक रसों, भोगों में लिप्त होने बाद जब उसे जीवन की निःस्सारता का बोध होता है, वहीं क्षण इश्वर के पथ पर, आत्म कल्याण एवं परमानंद के पथ पर बढ़ा पहला कदम होता है। और यही से प्रारंभ होती है उसकी खोज, जो की सदैव से ही ज्ञानियों के लिए विचारणीय विषय रहा है, कि परमात्मा का स्वरुप क्या है?

और जब जीव की पुकार तीव्र हो जाती है, तो प्रभु उसे किसी न किसी रूप में कृतार्थ करते ही हें। और इसीलिए इश्वर का मनुष्य रूप में समय-समय पर अवतार होता रहा है। शास्त्रों में परमात्मा के दशावतारों का विवरण आया है - कूर्मावतार, मत्स्यावतार, वराह अवतार, वामनावतार, नृसिंहावतार, परशुराम अवतार, रामावतार, कृष्णावतार, बुद्धावतार।

अवतारों के इसी क्रम की आगे बढाती श्रृंखला की एक कथा का विवरण 'कल्कि पुराण' के श्लोक क्रं १ से २२ तक आया है। नैमिषारन्य में समस्त अवतारों की कथा-लीला, वार्तालाप महर्षि सूद और शौनकादीऋषियों में चल रही थी और ऋषिश्रेष्ठ सूद जी से शौनक मुनि प्रश्न करते हें, कि बुद्धावतार के बाद कलियुग जब पराकाष्ठा में होगा, तब भगवान् किस शक्ति स्वरुप में जन्म लेंगे? उसका विवरण देते हुए सूत जी बोले - "हे मुनीश्वर ! ब्राह्माजी ने अपनी पीठ से घोर मलीन पातक को उत्पन्न किया, जिसका नाम रखा गया - 'अधर्म'। अधर्म जब बड़ा हुआ, तब उसका 'मिथ्या' से विवाह कर दिया। दोनों के संयोग से महाक्रोधी पुत्र 'दम्भ' तथा 'माया' नामक कन्या हुई। फिर दम्भ व् माया के संयोग से 'लोभ' नामक पुत्र और विकृति नामक कन्या हुई। दोनों ने 'क्रोध' को जन्म दिया। क्रोध से हिंसा व् इन दोनों के संयोग से काली देहवाले महाभयंकर 'कलि' का जन्म हुआ। कराल, चंचल, भयानक, दुर्गन्धयुक्त शरीर, द्यूत, मद्य, स्वर्ण और वेश्या में निवास करने वाले इस कलि की बहीण व् संतानों के रूप में दुरुक्ति, भयानक, मृत्यु, निरत, यातना का जन्म हुआ। जिसके हजारो अधर्मी पुत्र-पुत्री आधी-व्याधि, बुढ़ापा, दुःख, शोक, पतन, भोग-विलास आदि में निवास कर यग्य, तप, दान, स्वाध्याय, उपासना आदि का नाश करने लगे।"

और कलियुग में ऐसा हि होने लगा - क्रोध, दम्भ, माया, मलिनता, व्याधि, भोग, पतन इत्यादि स्थितियां उत्पन्न हुई और धीरे-धीरे इन स्थितियों ने संसार को इतना ढक दिया, कि आम आदमी ईश्वरीय सत्ता पर संदेह करने लगा। संभवतया महाभारत के समय कृष्ण ने इस स्थिति को समझा और कहा -

यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत,
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम ।

अर्थात जब-जब संसार ने अनीति, अत्याचार , अधर्म पूर्ण रूप से व्याप्त हो जाएगा, तब ईश्वरीय सत्ता किसी न किसी रूप में प्रादुर्भाव लेगी।

जब त्रेता युग में परिवार की मर्यादाओं की हानि हो रही थी, यज्ञ, तप मलिन हो रहे थे, तब परमात्मा ने भगवान् श्रीराम के रूप में अवतरण किया। राज गृह में जन्म लेकर मर्यादा स्थापित करने के लिए पुरे आर्यावत का भ्रमण किया। वनवास रूप में यह भ्रमण तो उनका एक लीला स्वरुप था, मूल भावना यह थी, कि पुरे आर्यावत को अयोध्या से लंका तक एक किया जाए। हर स्थान पर पुनः वेद वाणी का गुंजन हो और पुन यज्ञ ज्योति प्रज्वलित हो। अपने इस स्वरुप में श्रीराम ने कहीं भी कोई जाती भेद, स्थान भेद नहीं किया, वानर भील आदिवासी सभी तो उनके प्रिय थे ... और उनका पूरा विचरण राष्ट्र वनवास ही था। अपनी पत्नी के साथ पद यात्रा कर एक भावनात्मक एहसास जन मानस में उत्पन्न किया, फिर उन्होनें सबको साथ लेकर आसुरी प्रवृत्तियों के प्रतीक रावण का सम्पूर्ण नाश किया। केवल रावण ही नहीं, उसके साथ जो भी आसुरिय प्रवृत्तियों के व्यक्ति थे उन सबका जड़-मूल से ही नाश कर पूरे भूमण्डल पर शुद्ध धर्म स्थापित किया। श्रीराम ने भी विश्वामित्र से अस्त्र-शास्त्र विद्या सीखी और ब्रह्मर्षि वशिष्ठ से ज्ञान प्राप्त किया और वह भी गुरुकुल में रहकर।

श्रीकृष्ण ने भी मां के गर्भ से जन्म लिया। एक बालक की तरह अपनी बाल लीलाएं संपन्न की, देवकी के गर्भ से जन्म लेकर यशोदा के घर उनका बाल्यकाल व्यतीत हुआ। अपने बाल्यकाल में निरंतर लीलाएं करते हुए आसुरी प्रवृत्तियों का नाश करने के लिए प्रवृत्त रहना - कालिया मर्दन, पूतना वध इत्यादि कार्य तो उन्होनें बाल्यकाल में ही संपन्न कर दी और जहां द्वापर युग में लोगों के जीवन में शुष्कता और द्वेष की अधिकता हो गई थी, वहां उन्होनें प्रेम को एक नई अभिव्यक्ति दी।

उनकी रासलीला, जिसमे पूरा भू-मण्डल कृष्णमय होकर उनके साथ नृत्य संगीत कर रहा था, यह प्रेम की सर्वोत्कृष्ट अभिव्यक्ति ही तो थी, लेकिन इसके साथ ही साथ सुदूर सान्दीपन आश्रम में जाकर शिष्य के रूप में शिक्षा भी ग्रहण की।

अवतारी पुरूष को क्या आवश्यकता थी, कि वे शिक्षा आदि ग्रहण करते, जीवन के सामान्य नियमों का पालन करते?

लेकिन उन्हें समाज के सामने आदर्श स्थापित करना था, और उनके इस प्रेम स्वरुप के साथ ही श्रीकृष्ण के व्यक्तित्व का नीतिज्ञ स्वरुप, युगनिर्माता स्वरुप भी प्रकट होता है - महाभारत के युद्ध के समय। ठीक वही स्थिति जो राम के समय थी, जब रावण रूपी आसुरी प्रवृत्तियां बढ़ गई थीं और फिर द्वापर में कौरव रूपी आसुरी प्रवृत्तियां बढ़ गई थीं और पूरे भू-मण्डल पर आधिकार कर लिया था। तब श्रीकृष्ण ने अपने विराटस्वरूप के माध्यम से अर्जुन को ज्ञान करवाया, कि संख्या बल महत्वपूर्ण नहीं है। महत्वपूर्ण है धर्म की स्थापना, चाहे इसके लिए जीवन का बलिदान ही क्यों न करना पड़े। यदि सत्य और धर्म तुम्हारे साथ है, तो आसुरी प्रवृत्तियां कभी भी विजय प्राप्त नहीं कर सकती हें। महाभारत का युद्ध इतिहास परिवर्तन का युद्ध था। पुनः आर्यावत में धर्म की चेतना जागृत हुई, सामाजिक जीवन को नष्ट कर देने वाली - विलासिता, जुआ, मद्यपान, नारी अपमान की प्रवृत्तियां नष्ट हुई।

पूरे जीवन कृष्ण ने किसी भी प्रकार की सामाजिक आचार सहिंता का उल्लंघन नहीं किया, गृहस्थ जीवन भी धारण किया और जब देखा कि गोकुल, मथुरा, हस्तिनापुर में मेरा कार्य पूर्ण हो गया है, तो सुदूर द्वारका में राज्य स्थापन कर वहां धर्म स्थापना की, जिससे अखंड आर्यावत का निर्माण हो सके।

काल का चक्र निरंतर चलता ही रहा और यही आर्यावत छोटे-छोटे राज्यों में बट गया। प्रत्येक राज्य में द्वेष, हजारों प्रकार की पूजाएं, नास्तिकता-आस्तिकता का संघर्ष - तब प्रभु ने बुद्ध के रूप में जन्म लिया और उनकी जीवन यात्रा सिद्धार्थ रूप में जन्म लेकर बोधीसत्व प्राप्त कर अन्ततः तथागत स्वरुप प्राप्त कर लेने तक की एक विराट यात्रा थी, जिसमें उन्होनें तीन सिद्धांत जनमानस में स्थापित किए -

बुद्धं शरणं गच्छामि, संघं शरणं गच्छामि, धम्मं शरणं गच्छामि

अर्थात खण्ड-खण्ड में बटकर रहने की बजाय संघ बनाकर धर्म पालन आवश्यक है और धर्म का पालन शुद्ध सात्विक बुद्धि, जो कि बुद्धत्व उत्पन्न करती है, उसके द्वारा ही सम्भव है। उस समय की मांग जनमानस में त्याग, करुणा, प्रेम, साहचर्य उत्पन्न करना था और क्षत्रिय परिवार में जन्म लेकर बुद्ध ने भिक्षुक वेष धारण कर भिक्षा पात्र में लेकर पुरे आर्यावर्त में और उससे भी बाहर सुदूर देशों में धर्म की स्थापना की। उन्होनें स्वयं कभी कोई सम्राट पद धारण नहीं किया, लेकिन सारे सम्राट उनके ही तो अधीन थे। वे तो जन-जन के सम्राट थे और क्यों न हों, कि पुनः एकता, साहचर्य और धर्म स्थापित हो गया।

इन तीनों महावातारों में पूर्ण भिन्नता नजर आती है, ऐसा इसलिए हुआ कि युग धर्म के अनुसार भगवान् अलग-अलग स्वरूपों में प्रकट होते हें। जहां जिस प्रकार के कार्य कि आवश्यकता होती है, भगवान् युगपुरुष में, युग-दृष्टा के रूप में अवतरित होते है और जिस उद्देश्य के लिए अवतरण लेते हें, उस कार्य को पूरा करने के पश्चात पुनः ब्रह्माण्ड में अपने विराट स्वरुप में स्थित हो जाते हैं।

प्रभु जब भी अवतरण लेते हैं, तो वे संसार को ये संदेश देना चाहते हैं कि जीवन का क्या आदर्श होना चाहिए और मनुष्य जन्म लेकर अपने जीवन में परमात्मा की अविच्छिन्न शक्ति का प्रतीक बनकर संसार में सद्कार्य कर सकता हैं। असंभव को सम्भव कर सकता हैं, एक-एक कर अपने मार्ग में आने वाली बाधाओं को मिटा सकता हैं। उसके जीवन में भी प्रेम, करुणा, मोह गृहस्थ सब कुछ होगा, इन सब स्थितियों के साथ वह सात्विकता की ओर अग्रसर हो सकता हें, पूर्णत्व की ओर अग्रसर हो सकता हैं।

यह तो द्रष्टा पर निर्भर करता है, कि वह अपने आराध्य को किस रूप में देखता हैं। और इन अवतरणों का क्रम बढ़ता हुआ इस युग में पुनः सम्भव हुआ पूज्य 'डॉ नारयण दत्त श्रीमाली जी' के रूप में। पूज्य सदगुरुदेव अपने परिवार के लिए पिता, भाई आदि स्वरुप में प्रिय बने, तो वहीं उनके शिष्यों ने उन्हें सदगुरुदेव, प्रभु, इष्ट, मंत्रज्ञ, तन्त्रज्ञ, ज्योतिषविद तथा अन्य रूपों में आत्मसात किया हैं।

ब्रह्मवैवर्त पुराण में व्यास मुनि ने स्पष्ट लिखा है, कि भगवान् के अवतारों स्वरुप में दस गुण अवश्य ही परिलक्षित होंगे और इन्हीं दस गुणों के आधार पर संसार उन्हें पहिचानेगा।

तपोनिष्ठः मुनिश्रेष्ठः मानवानां हितेक्षणः ।
ऋषिधर्मत्वमापन्नः योगी योगविदां वरः
दार्शनिकः कविश्रेष्ठः उपदेष्टा नीतिकृत्तथा ।
युगकर्तानुमन्ता च निखिलः निखिलेश्वरः ॥
एभिर्दशगुणैः प्रीतः सत्यधर्मपरायणः ।
अवतारं गृहीत्चैव अभूच्च गुरुणां गुरुः ॥


सदगुरुदेव पूज्यपाद डॉ नारायणदत्त श्रीमाली जी, संन्यासी स्वरुप निखिलेश्वरानंद जी का विवेचन आज यदि महर्षि व्यास द्वारा उध्दृत दस गुणों के आधार पर किया जाए, तो निश्चय ही सदगुरुदेव अवतारी पुरूष हैं, जिन्होनें अपने सांसारिक जीवन का प्रारम्भ एक सुसंस्कृत ब्राह्मण परिवार में किया - सुदूर पिछडा रेगिस्तानी गांव था। जब इनका जन्म हुआ तो माता-पिता को प्रेरणा हुई, कि इस बालक का नाम रखा जाए - 'नारायण'।

यह नारायण नाम धारण करना और उस नारायण तत्व का निरंतर विस्तार केवल युगपुरुष नारायण दत्त श्रीमाली के लिए ही सम्भव था, जिन्होनें अपने अल्पकालीन भौतिक जेवण में शिक्षा का उच्चतम आयाम ग्रहण कर पी.एच.डी. अर्थात डाक्ट्रेट की उपाधि प्राप्त की।

 योगी विश्वेश्रवानन्द

Saturday, December 12, 2009

मन्त्रों का वैज्ञानिक महत्वः-

मन्त्रों का वैज्ञानिक महत्वः-

मंत्र ध्वनि-विज्ञान का शूक्ष्मतम विज्ञान है। मंत्र-शरीर के अन्दर से शूक्ष्म ध्वनि को विशिष्ट तरंगों में बदल कर ब्रह्मांड में प्रवाहित करने की क्रिया है जिससे बड़े-बड़े कार्य किये जा सकते हैं। प्रत्येक अक्षर का विशेष महत्व है। प्रत्येक अक्षर का विशेष अर्थ है। प्रत्येक अक्षर के उच्चारण में चाहे वो वाचिक,उपांसू या मानसिक हो विशेष प्रकार की ध्वनि निकलती है तथा शरीर में एवं विशेष अंगो नाड़ियों में विशेष प्रकार का कम्पन पैदा करती हैं जिससे शरीर से विशेष प्रकार की ध्वनि तरंगे/विद्युत निकलती है जो वातावरण/आकाशीय तरंगो से संयोग करके विशेष प्रकार की क्रिया करती हैं।विभिन्न अक्षर(स्वर-व्यंजन) एक प्रकार के बीज मंत्र हैं। विभिन्न अक्षरों के संयोग से विशेष बीज मंत्र तैयार होते है जो एक विशेष प्रकार का प्रभाव डालते हैं, परन्तु जैसे अंकुर उत्पन्न करने में समर्थ सारी शक्ति अपने में रखते हुये भी धान,जौ,गेहूँ अदि संसकार के अभाव में अंकुर उत्पन्न नहीं कर सकते वैसे ही मंत्र-यज्ञ आदि कर्म भी सम्पूर्ण फल जनन शक्ति से सम्पन्न होने पर भी यदि ठीक-ठीक से अनुष्ठित न किये जाय तो कदापि फलोत्पादक नहीं होता है।

घर्षण के नियमों से सभी विज्ञानवेत्ता भलीभातिं परचित होगें। घर्षण से ऊर्जा(ताप,विद्युत) आदि पैदा होती है। मंत्रों के जप से भी श्वांश के शरीर में आवागमन से तथा विशेष अक्षरों के अनुसार विशेष स्थानों की नाड़ियों में कम्पन(घर्षण) पैदा होने से विशेष प्रकार का विद्युत प्रवाह पैदा होता है, जो साधक के ध्यान लगाने से एकाग्रित (एकत्रित) होता है तथा मंत्रों के अर्थ (साधक को अर्थ ध्यान रखते हुए उसी भाव से ध्यान एकाग्र करना आवश्यक होता है।) के आधार पर ब्रह्मांड में उपस्थित अपने ही अनुकूल(ग्रहण करने योग्य) उर्जा से संपर्क करके तदानुसार प्रभाव पैदा करता है। रेडियो,टी०वी० या अन्य विद्युत उपकरणों में आजकल रिमोट कन्ट्रोल का सामान्य रूप से प्रयोग देखा जा सकता है। इसका सिद्धान्त भी वही है। मंत्रों के जप से निकलने वाली सूक्ष्म उर्जा भी ब्रह्मांड की उर्जा से संयोंग करके वातावरण पर बिशेष प्रभाव डालती है। हमारे ऋषि-मुनियों ने दीर्घकाल तक अक्षरों, मत्राओं, श्वरों पर मनन, चिन्तन एवं उसपर अध्ययन प्रयोग, अनुसंधान करके उनकी शक्तियों को पहचाना जिनका वर्णन वेद पुराणों आदि में किया है। इन्ही मंत्र शक्तियों से आश्चर्यजनक कार्य किया जो अविश्वसनीय से लगते हैं,यद्यपि समय के थपेड़ो के कारण उनके वर्णनों में कुछ अपभ्रंस सामिल हो जाने के वावजूद भी उनमें अभी भी काफी वैज्ञानिक अंश ऊपलब्ध है, बस थोड़ा सा उनके वास्तविक सन्दर्भ को दृष्टिगत रखते हुए प्रयोग करके प्रमाणित करने की आवश्यकता है|

मंत्र विज्ञानः-मंत्र विज्ञान का सच यही है कि यह वाणी* की ध्वनि के विद्युत रूपान्तरण की अनोखी विधि है। हमारा जीवन,हमारा शरीर और सम्पूर्ण ब्रह्मांण जिस उर्जा के सहारे काम करता है,उसके सभी रूप प्रकारान्तर में विद्युत के ही विविध रूप हैं। मंत्र-विद्या में प्रयोग होने वाले अक्षरों की ध्वनि (उच्चारण की प्रकृति अक्षरों का दीर्घ या अर्धाक्षर, विराम, अर्धविराम आदि मात्राओं) इनके सूक्ष्म अंतर प्रत्यन्तर मंत्र-विद्या के अन्तर-प्रत्यन्तरों के अनुरूप ही प्रभावित व परिवर्तित किये जा सकते हैं। मंत्र-विज्ञान के अक्षर जो मनुष्य की वाणी की ध्वनि जो शरीर की विभिन्न नाड़ियों के कम्पन से पैदा होते हैं तथा जो कि मानव के ध्यान एवं भाव के संयोग से ही विशेष प्रकार कि विद्युत धारा उत्पन्न करते हैं वही जैव-विद्युत आन्तरिक या बाह्य वातावरण को अपने अनुसार ही प्रभावित करके परिणाम उत्पन्न करती है।

शारीरिक रोग उत्पन्न होने का कारण भी यही है कि जैव-विद्युत के चक्र का अव्यवस्थित हो जाना। जैव-विद्युत की लयबद्धता का लड़खड़ा जाना ही रोग की अवस्था है। जब हमारे शरीर में उर्जा का स्तर निम्न हो जाता है तब अकर्मण्यता आती है। मंत्र जप के माध्यम से ब्रह्मांणीय उर्जा-प्रवाह को ग्रहण-धारण करके अपने शरीर के अन्दर की उर्जा का स्तर ऊचा उठाया जा सकता है और अकर्मण्यता को उत्साह में बदला जा सकता है। चुकि संसार के प्राणी एवं पदार्थ सब एक ही महत चेतना के अंशधर है,इसलिये मन में उठे संकल्प का परिपालन पदार्थ चेतना आसानी से करने लगती है। जब संकल्प शक्ति क्रियान्वित होती है तो फिर इच्छानुसार प्रभाव एवं परिवर्तन भी आरम्भ हो जाता है।मंत्र साधना से मन, बुद्धि, चित अहंकार में असाधारण परिवर्तन होता हे। विवेक, दूरदर्शिता, तत्वज्ञान और ऋतमभरा बुद्धि के विशेष रूप से उत्पन्न होने के कारण अनेक अज्ञान जन्य दुखों का निवारण हो जाता है।

(* वाणी:- चत्वारि वाक्परिमिता पदानि तानि विदुर्ब्राह्मणा ये मनीषिणः।
गुहा त्रीणि निहिता नेङ्गयन्ति तुरीयं वाचो मनुष्या वदन्ति।। (ऋग्वेद १।१६४।४५)
मनीषियों द्वारा यह ज्ञात हुआ है कि वाणी के चार चरण है, इनमें से तीन वाणियाँ (परा,पश्यन्ती तथा मध्यमा) प्रकट नहीं होती।गुफा में ही छिपी रहती हैं सभी मनुष्य वाणी के चौथे चरण (बैखरी) को ही बोलते हैं। शेष तीन वाणियोँ में शब्दोच्चार तो नहीं होता है किन्तु शक्तियों का भण्डागार छिपा रहता है।

वैखरी वाणी - वैखरी वाणी वार्तालाप में बोली जाती है यह मनुष्यों की वाणी है।
मध्यमा वाणी - मध्यमा वाणी में शब्दों का उच्चारण नहीं होता परन्तु संकेतों, हाव-भाव से अभिप्राय प्रकट होता है। बिना कुछ कहे-सुने भी व्यक्ति एक दूसरे की मनःस्थिति से अवगत हो सकते हैं।
परावाणी - यह विचारों के रूप में मस्तिष्क में चलती रहती है। इसका प्रत्यक्ष प्रकटीकरण तो मुखाकृति से भी नाम मात्र ही हो सकता है। यह बिना स्पर्श के भी विद्युत तरंगों के माध्यम से वातावरण में उर्जा का संचार करके दूसरों तक फैला देती है।
पश्यन्ती वाणी - पश्यन्ति वाणी का उदगम अन्तःकरण है, जिसमें से प्रभावशाली प्रवाह उदभूत करने के लिये यह आवश्यक है कि स्थूल शरीर के कार्यकलाप, सूक्ष्म शरीर के चिन्तन और कारण शरीर के सदभाव उच्च कोटि के रहें। इन सबकी संयुक्त उत्कृष्टता ही पश्यन्ति वाणी का निर्माण करती है। वह इतनी तीब्र हो सकती है कि अनाचार से लड़ सकती है तथा सत्प्रवृतियाँ दूरगामी प्रभाव ड़ाल सकती हैं।)

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