Saturday, January 18, 2014

33 प्रकार के देवताओं को 33 करोड़ देवी-देवता माना जाता है

हमारे 33 करोड़ देवी-देवता हैं, यानी देवी-देवताओं की संख्या 33 करोड़ बताई जाती है। ये बात कम ही लोग जानते हैं कि 33 करोड़ देवी-देवता कैसे बताए गए हैं और इनमें कौन-कौन से देवता शामिल हैं। शास्त्रों के अनुसार देवताओं की संख्या 33 कोटि बताई गई हैं। यहां कोटि शब्द का अर्थ है प्रकार, यानी 33 प्रकार के देवता बताए गए हैं। इसी शब्द 33 कोटि को 33 करोड़ माना जाने लगा है। पुराने समय से ही 33 कोटि देवता की गणना 33 करोड़ देवी-देवताओं के रूप में की जाती रही है। इन 33 कोटियों में आठ वसु, ग्यारह रुद्र, बारह आदित्य, इंद्र और प्रजापति शामिल हैं। इन्हीं देवताओं को 33 करोड़ देवी-देवता माना गया है। यहां इंद्र और प्रजापति के स्थान पर कुछ विद्वानों द्वारा दो अश्विनी कुमारों को शामिल किया जाता है। इस प्रकार कुल 33 करोड़ देवता नहीं हैं बल्कि 33 प्रकार के प्रमुख देवता बताए गए हैं। अष्ट वसु, बारह आदित्य, 11 रुद्र, इंद्र और प्रजापति सहित ये 33 प्रमुख देवता कौन-कौन हैं... ये हैं 12 आदित्य के नाम - धाता - मित - अर्यमा - शक्र - वरुण - अंश - भग - विवस्वान - पूषा - सविता - त्वष्टा - विष्णु ये हैं अष्ट वसु के नाम - धर - ध्रुव - सोम - अह - अनिल - अनल - प्रत्युष - प्रभाष ये हैं ग्यारह रुद्र - हर - बहुरूप - त्र्यम्बक - अपराजिता - वृषाकपि - शम्भू - कपर्दी - रेवत - म्रग्व्यध - शर्व - कपाली बारह आदित्य, ग्यारह रुद्र और अष्ट वसु के साथ ही 2 अश्विनी कुमार हैं। इन सभी देवताओं की संख्या का योग 33 है और इन्हीं 33 प्रकार के देवताओं को 33 करोड़ देवी-देवता माना जाता है। कोटि शब्द के दो अर्थ हैं पहला है करोड़ और दूसरा अर्थ है प्रकार। अत: यहां कोटि शब्द का अर्थ करोड़ माना जाने लगा, जिससे देवताओं की संख्या 33 करोड़ हो गई।

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गरुण पुराण

  सुखी और समृद्धिशाली जीवन के लिए शास्त्रों में कई महत्वपूर्ण सूत्र और परंपराएं बताई गई हैं। इन सूत्रों का पालन करने पर हमारा जीवन सुखी और समृद्धिशाली हो सकता है। व्यक्ति की किसी भी प्रकार की कमजोरियां या परेशानियां सताती नहीं हैं। कुछ बातें ज्ञान की हैं जिन्हें हमेशा ध्यान रखना हमारे लिए फायदेमंद रहता है।
 गरुण पुराण एक ऐसा ग्रंथ है 
जिसमें जीवन और मृत्यु के रहस्यों का उल्लेख किया गया है। हमारे किन कर्मों का क्या फल हमें प्राप्त होता है, यह गरुण पुराण में बताया गया है। इसी पुराण में चार बातें या काम ऐसे बताए गए हैं जिन्हें अधूरा छोडऩा नुकसानदायक हो सकता है। इनमें से कुछ बातें ऐसी हैं जिन्हें शेष छोड़ दिया जाए तो संकट तक खड़ा हो सकता है। 
चार काम हैं जिन्हें बीच में नहीं छोडऩा चाहिए- 
गरुण पुराण के अनुसार ऋण या उधार लिया गया पैसा किसी भी स्थिति में पूरा लौटा देना चाहिए। यदि ऋण पूरा नहीं उतारा जाता है तो वह पुन: ब्याज के कारण बढऩे लगता है। यदि किसी व्यक्ति से ऋण लिया जाए और पूरा न चुकाया जाए तो रिश्तों दरार पडऩे की पूरी संभावनाएं रहती हैं। अत: ऐसी स्थिति से बचने के लिए ऋण का शत-प्रतिशत निपटारा जल्दी से जल्दी कर देना चाहिए। यदि कोई व्यक्ति बीमार है तो उसे दवाइयों की मदद से और आवश्यक परहेज से रोग को जड़ से मिटा देना चाहिए। जो लोग पूरी तरह स्वस्थ न होते हुए भी दवाइयां लेना बंद कर देते हैं तो उन्हें भविष्य में पुन: बीमारी हो सकती है। सामान्यत: बीमारी का पुन: लौटना जान का खतरा ही होता है। अत: बीमारी की अवस्था में दवाइयां लेते रहना चाहिए, बीमारी के कीटाणुओं को जीवित नहीं रहने देना चाहिए। यदि आपका कोई शत्रु है और वह बार-बार प्रयास करने के बाद भी शत्रुता समाप्त नहीं कर रहा है तो उसे किसी भी तरह शांत कर देना चाहिए। क्योंकि शत्रु हमेशा ही हमारा अहित करने की योजनाएं बनाते रहेंगे और शत्रु बढ़ाते रहेंगे। शत्रुता का नाश करने पर ही जीवन से भय का नाश हो सकता है। यदि कहीं आग लग रही है तो आग को भी पूरी तरह बुझा देना चाहिए। अन्यथा छोटी सी चिंगारी भी पुन: बड़ी आग में बदल सकती है और जान और माल को नुकसान पहुंचा सकती है। गरुण पुराण के अनुसार यदि कोई व्यक्ति मनोवांछित फल प्राप्त नहीं कर पाता है तो वह अज्ञानता वश क्रोधित होता है। जब व्यक्ति क्रोधित होता है तो उससे चिन्ता उत्पन्न होती है। चिंतित रहने वाले व्यक्ति के मन में काम और क्रोध अधिक बढ़ते हैं। ऐसी स्थिति में व्यक्ति कई बार अनैतिक कर्म कर सकता है। अत: हमें हर परिस्थिति में संतोषपूर्वक जीवन व्यतित करना चाहिए। जो व्यक्ति कामवासना में लिप्त रहते हैं वे स्वयं के स्वार्थों की पूर्ति के लिए अन्य कामी व्यक्ति के साथ विरोध करते हैं। ऐसे लोग दूसरों के नाश के लिए सदैव मनन करते रहते हैं। जब एक दुर्बल कामी पुरुष दूसरे बलवान कामी से बैर करता है तो वह अवश्य ही मृत्यु को प्राप्त हो जाता है। जिस प्रकार एक हाथी छोटे-छोटे जीवों नष्ट कर देता है ठीक इसी प्रकार बलवान कामी पुरुष निर्बल कामी पुरुष के प्राणों का हरण कर लेता है। जो व्यक्ति मूर्ख होता है वह इंसानियत का नाश करने में लगा रहता है। दूसरों को अपनी मूर्खतापूर्ण बातों से ठेस पहुंचाने का प्रयत्न करता है। ऐसे मूर्ख लोग भयंकर पापी होते हैं। गरुण पुराण के अनुसार इन लोगों को युवा अवस्था में दुखों का सामना करना पड़ता है और इनका बुढ़ापा भी गंभीर बीमारियों के साथ गुजरता है। मूर्ख व्यक्ति की आत्मा देह त्याग के बाद नरक में जाती है। कई प्रकार यातनाओं को झेलने के बाद वह आत्मा पुन: धरती पर देह धारण करती है। यह चक्र अनवरत चलता रहता है। मूर्ख व्यक्ति की आत्मा को वैराग्य प्राप्त नहीं हो पाता है और ना ही ऐसे लोग भगवान की भक्ति कर पाते हैं।

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16 संस्कार

  शास्त्रों के अनुसार मनुष्य जीवन के लिए कुछ आवश्यक नियम बनाए गए हैं जिनका पालन करना हर स्त्री और पुरुष दोनों के लिए आवश्यक माना गया है। शास्त्रों में जीवन के सोलह संस्कार बताए गए हैं। इन सभी संस्कारों का पालन करना शास्त्रों ने जरूरी होता है। ये सभी 16 संस्कार व्यक्ति के जन्म से मृत्यु तक अलग-अलग समय पर किए जाते हैं। प्राचीन काल से ही इन सोलह संस्कारों के निर्वहन की परंपरा चली आ रही है। हर संस्कार का अपना अलग महत्व है। जो व्यक्ति इन सोलह संस्कारों का निर्वहन नहीं करता है उसका जीवन अधूरा ही माना जाता है। आज के समय में काफी अधिक ऐसे लोग हैं जो इन संस्कारों के विषय में जानते नहीं हैं। ये सोलह संस्कार कौन-कौन से हैं और इनका हमारे जीवन में क्या महत्व है,  कर्णवेध संस्कार- इसका अर्थ है- कान छेदना। प्राचीन परंपरा के अनुसार शिशु के कान और नाक भी छेदे जाते थे। इसके दो कारण हैं, एक- आभूषण पहनने के लिए। दूसरा- कान छेदने से एक्यूपंक्चर होता है। इससे मस्तिष्क तक जाने वाली नसों में रक्त का प्रवाह ठीक होता है। इस संस्कार से श्रवण शक्ति बढ़ती है और कई रोगों की रोकथाम हो जाती है। उपनयन या यज्ञोपवित संस्कार- उप यानी पास और नयन यानी ले जाना। गुरु के पास ले जाने का अर्थ है उपनयन संस्कार। आज भी यह परंपरा है। जनेऊ यानी यज्ञोपवित में तीन सूत्र होते हैं। ये तीन देवता- ब्रह्मा, विष्णु, महेश के प्रतीक हैं। इस संस्कार से शिशु को बल, ऊर्जा और तेज प्राप्त होता है। वातावरण की नकारात्मक ऊर्जा से शिशु का बचाव होता है। वेदारंभ संस्कार- इसके अंतर्गत व्यक्ति को वेदों का ज्ञान दिया जाता है। इस संस्कार से ही शिशु को अच्छाई और बुराई में फर्क करने की समझ आती है। वेदारंभ संस्कार से ही शिशु को जीवन जीने की सही कला का ज्ञान प्राप्त होता है। केशांत संस्कार- केशांत संस्कार अर्थ है केश यानी बालों का अंत करना, उन्हें समाप्त करना। विद्या अध्ययन से पूर्व भी केशांत किया जाता है। मान्यता है गर्भ से बाहर आने के बाद बालक के सिर पर माता-पिता के दिए बाल ही रहते हैं। इन्हें काटने से शुद्धि होती है। शिक्षा प्राप्ति के पहले शुद्धि जरूरी है, ताकि मस्तिष्क ठीक दिशा में काम करें। पुराने में गुरुकुल से शिक्षा प्राप्ति के बाद केशांत संस्कार किया जाता था। समावर्तन संस्कार- समावर्तन संस्कार अर्थ है फिर से लौटना। आश्रम या गुरुकुल से शिक्षा प्राप्ति के बाद व्यक्ति को फिर से समाज में लाने के लिए यह संस्कार किया जाता था। इसका आशय है ब्रह्मचारी व्यक्ति को मनोवैज्ञानिक रूप से जीवन के संघर्षों के लिए तैयार किया जाना। विवाह संस्कार- यह धर्म का साधन है। विवाह संस्कार सर्वाधिक महत्वपूर्ण संस्कार माना जाता है। इसके अंतर्गत वर और वधू दोनों साथ रहकर धर्म के पालन का संकल्प लेते हुए विवाह करते हैं। विवाह के द्वारा सृष्टि के विकास में योगदान दिया जाता है। संतान उत्पन्न की जाती है और इसी संस्कार से व्यक्ति पितृऋण से मुक्त होता है। अंत्येष्टी संस्कार- अंत्येष्टि संस्कार इसका अर्थ है अंतिम संस्कार। शास्त्रों के अनुसार इंसान की मृत्यु यानि देह त्याग के बाद मृत शरीर अग्नि को समर्पित किया जाता है। आज भी शवयात्रा के आगे घर से अग्नि जलाकर ले जाई जाती है। इसी से चिता जलाई जाती है। इसका आशय यह है विवाह के बाद व्यक्ति ने जो अग्नि घर में जलाई थी उसी से उसके अंतिम यज्ञ की अग्नि जलाई जाती है। गर्भाधान संस्कार- यह ऐसा संस्कार है जिससे हमें योग्य, गुणवान और आदर्श संतान प्राप्त होती है। शास्त्रों के अनुसार मनचाही संतान प्राप्त के लिए गर्भधारण संस्कार किया जाता है। इसी संस्कार से वंश वृद्धि होती है। मनुष्य जीवन का यही भी एक अनिवार्य उद्देश्य है जिसके अंतर्गत मनुष्य को संतान उत्पन्न करनी चाहिए। पुंसवन संस्कार- गर्भस्थ शिशु के बौद्धिक और मानसिक विकास के लिए यह संस्कार किया जाता है। पुंसवन संस्कार के प्रमुख लाभ ये है कि इससे स्वस्थ, सुंदर गुणवान संतान की प्राप्ति होती है। इस संस्कार के अंतर्गत गर्भस्थ शिशु की माता को अपने आहार और आचरण में विशेष ध्यान चाहिए। यह संस्कार गर्भाधान के तीसरे माह में किया जाना चाहिए। सीमन्तोन्नयन संस्कार- यह संस्कार गर्भ के चौथे, छठवें और आठवें महीने में किया जाता है। इस समय गर्भ में पल रहा बच्चा सीखने के काबिल हो जाता है। उसमें अच्छे गुण, स्वभाव और कर्म का ज्ञान आए, इसके लिए मां उसी प्रकार आचार-विचार, रहन-सहन और व्यवहार करती है। जातकर्म संस्कार- बालक का जन्म होते ही इस संस्कार को करने से शिशु के कई प्रकार के दोष दूर होते हैं। इसके अंतर्गत शिशु को शहद और घी चटाया जाता है साथ ही वैदिक मंत्रों का उच्चारण किया जाता है ताकि बच्चा स्वस्थ और दीर्घायु हो। नामकरण संस्कार- शिशु के जन्म के बाद 11वें दिन नामकरण संस्कार किया जाता है। शिशु के जन्म के बाद दस दिनों तक सूतक माना जाता है, इसी वजह से नामकरण संस्कार 11वें दिन किया जाता है। ब्राह्मण द्वारा ज्योतिष शास्त्र के अनुसार बच्चे का नाम तय किया जाता है। ज्योतिष के अनुसार नाम के आधार पर शिशु के भविष्य संबंधित बातों की जानकारी प्राप्त की जा सकती है। इसी वजह से नामकरण संस्कार का विशेष महत्व है। निष्क्रमण संस्कार- निष्क्रमण का अर्थ है बाहर निकालना। शिशु के जन्म के चौथे महीने में यह संस्कार किया जाता है। हमारा शरीर पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश जिन्हें पंचभूत कहा जाता है, से बना है। इसलिए पिता इन देवताओं से बच्चे के कल्याण की प्रार्थना करते हैं। साथ ही कामना करते हैं कि शिशु दीर्घायु रहे और स्वस्थ रहे। शिशु को बाहरी वातावरण से परिचित करना चौथे माह से शुरू कर देना चाहिए। शिशु को सूर्य और चंद्र की रोशनी दिखाना चाहिए। ऐसा करने पर शिशु यशस्वी और दीर्घायु होता है। अन्नप्राशन संस्कार- यह संस्कार बच्चे के दांत निकलने के समय अर्थात 6-7 महीने की उम्र में किया जाता है। इस संस्कार के बाद बच्चे को अन्न खिलाने की शुरुआत हो जाती है। इसका संस्कार का मुख्य उद्देश्य शिशु के मानसिक और शारीरिक विकास को बढ़ाना है। इससे पूर्व शिशु का भोजन सिर्फ पेय पदार्थ जैसे दूध और जल पर आधारित है। इस संस्कार के बाद शिशु को अन्न देना भी शुरू कर दिया जाता है। मुंडन संस्कार- जब शिशु की आयु एक वर्ष हो जाती है तब या तीन वर्ष की आयु में या पांचवे या सातवे वर्ष की आयु में बच्चे के बाल उतारे जाते हैं जिसे मुंडन संस्कार कहा जाता है। इस संस्कार से बच्चे का सिर मजबूत होता है तथा बुद्धि तेज होती है। साथ ही शिशु के बालों में चिपके कीटाणु नष्ट होते हैं जिससे शिशु को स्वास्थ्य लाभ प्राप्त होता है। जन्म के समय से उत्पन्न अपवित्र केशों को मुंडन संस्कार द्वारा हटाया जाता है। विद्या आरंभ संस्कार- इस संस्कार के माध्यम से शिशु को उचित शिक्षा दी जाती है। शिशु को शिक्षा के प्रारंभिक स्तर से परिचित कराया जाता है। कुछ लोग मुंडन संस्कार से पहले ही शिशु को शिक्षा देना प्रारंभ कर देते हैं, वहीं दूसरी ओर कुछ लोग मुंडन संस्कार के बाद शिक्षण आरंभ करते हैं। प्राचीन समय में शिशु को विद्या के लिए गुरुकुल भेजने की परंपरा थी।

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शुभ और लाभ

 जब भी घर में कोई मुख्य द्वार के दोनों ओर शुभ और लाभ लिखा जाता है। हर मांगलिक कार्य में स्वस्तिक बनाने के साथ ही शुभ-लाभ भी लिखा जाता है। सिंदूर या कुमकुम से शुभ और लाभ लिखने के पीछे ऐसी मान्यता है कि इससे श्रीगणेश और महालक्ष्मी सहित सभी देवी-देवता प्रसन्न होते हैं। शास्त्रों अनुसार गणेशजी के दो पुत्र माने गए हैं, एक क्षेम अर्थात शुभ और दूसरे पुत्र का नाम है लाभ। घर के बाहर शुभ-लाभ लिखने का मतलब यही है कि हमारे घर में सुख और समृद्धि सदैव बनी रहे। ऐसी प्रार्थना ईश्वर से की जाती है। शुभ (क्षेम) लिखने का भाव यह है कि हम प्रार्थना करते हैं कि जिन साधनों, कला या ज्ञान से धन और यश प्राप्त हो रहा है वह सदैव बना रहे। लाभ लिखने का भाव यह है कि भगवान से हम प्रार्थना करते हैं कि हमारे घर की आय अथवा धन हमेशा बढ़ता रहे, लाभ होता रहे। श्रीगणेश की कृपा से हमारा व्यवसाय और स्रोत सदैव बढ़ते रहे।


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