Wednesday, August 13, 2008

ऋण मोचन लक्ष्मी साधना; लक्ष्मी प्राप्ति के बीस सूत्र

ऋण मोचन लक्ष्मी साधना

कर्ज का भार व्यक्ति के जीवन में अभिशाप की तरह होता है, जो व्यक्ति की हंसती हुई जिन्दगी में एक विष की भांति चुभ जाता है, जो निकाले नहीं निकलता और व्यक्ति को त्रस्त कर देता है। ऋण का ब्याज अदा करते-करते लम्बी अवधि हो जाती है, पर मूल राशी वैसी की वैसे बनी रहती है। नवरात्रि में ऋण मोचन लक्ष्मी की साधना करने से व्यक्ति कितना भी अधिक ऋणभार युक्त क्यों न हो, उसकी ऋण मुक्त होने की प्रक्रिया प्रारम्भ हो जाती है।

नवरात्री में अथवा इस काल में संकल्प लेकर किसी भी सप्तमी से नवमी के बीच साधना कर सकता है। इस प्रयोग के लिए प्राणप्रतिष्ठायुक्त 'ऋण मुक्ति यंत्र' और 'ऋण मोचन लक्ष्मी तंत्र फल' की आवश्यकता होती है। साधना वाले दिन साधक प्रातः काल स्नान कर, स्वच्छ वस्त्र धारण कर, पूर्व दिशा की ओर मुख कर अपने पवित्र आसन पर बैठ जाएं। अपने सामने एक बाजोट पर लाल रंग का कपडा बिछाकर उस पर किसी पात्र में यंत्र स्थापित कर दें, यंत्र के ऊपर कुंकुम से अपना नाम अंकित कर दें, उस पर तंत्र फल को रख दें। धुप-दीप से संक्षिप्त पूजन करें। वातावरण शुद्ध एवं पवित्र हो। फिर निम्न मंत्र का डेढ़ घंटे जप करें -

मंत्र
॥ ॐ नमो ह्रीं श्रीं क्रीं श्रीं क्लीं क्लीं श्रीं लक्ष्मी मम गृहे धनं देही चिन्तां दूरं करोति स्वाहा ॥

अगले दिन यंत्र को जल मे विसर्जीत कर दें तथा, ऋण मोचन फल को प्रयोगकर्ता स्वयं अपने हाथों से किसी गरीब या भिखारी को अतिरिक्त दान-दक्षिणा, फल-फूल आदि के साथ दें। कहा जाता है, की ऐसा करने से उस तंत्र फल के साथ ही व्यक्ति की ऋण बाधा तथा दरिद्रता भी दान में चली जाती है और उसके घर में भविष्य में फिर किसी प्रकार की दरिद्रता का वास नहीं रहता।

यदि दान लेने वाला नहीं मिले, तो प्रयोगकर्ता स्वयं किसी मन्दिर में जाकर दक्षिणा के साथ उस तंत्र फल को भेट चढ़ा दे। इस प्रयोग को संपन्न करने के बाद तथा तंत्र फल दान कर पुनः घर आने पर लक्ष्मी आरती अवश्य संपन्न करें। इस प्रकार प्रयोग पूर्ण हो जाता है।
मंत्र विज्ञान
लक्ष्मी प्राप्ति के बीस सूत्र

सदगुरुदेव की वाणी से लक्ष्मी साधना के अद्वितीय

बीस सूत्र

प्रत्येक गृहस्थ इन सूत्रों-नियमों का पालन कर जीवन में लक्ष्मी को स्थायित्व प्रदान कर सकता है। आप भी अवश्य अपनाएं -

1. जीवन में सफल रहना है या लक्ष्मी को स्थापित करना है तो प्रत्येक दशा में सर्वप्रथम दरिद्रता विनाशक प्रयोग करना ही होगा। यह सत्य है की लक्ष्मी धनदात्री हैं, वैभव प्रदायक हैं, लेकिन दरिद्रता जीवन की एक अलग स्थिति होती है और उस स्थिति का विनाश अलग ढंग से सर्वप्रथम करना आवश्यक होता है।

2. लक्ष्मी का एक विशिष्ट स्वरूप है "बीज लक्ष्मी"। एक वृक्ष की ही भांति एक छोटे से बीज में सिमट जाता है - लक्ष्मी का विशाल स्वरूप। बीज लक्ष्मी साधना में भी उतर आया है भगवती महालक्ष्मी के पूर्ण स्वरूप के साथ-साथ जीवन में उन्नति का रहस्य।

3. लक्ष्मी समुद्र तनया है, समुद्र से उत्पत्ति है उनकी, और समुद्र से प्राप्त विविध रत्न सहोदर हैं उनके, चाहे वह दक्षिणवर्ती शंख हो या मोती शंख, गोमती चक्र, स्वर्ण पात्र, कुबेर पात्र, लक्ष्मी प्रकाम्य क्षिरोदभव, वर-वरद, लक्ष्मी चैतन्य सभी उनके भ्रातृवत ही हैं और इनकी गृह में उपस्थिति आह्लादित करती है, लक्ष्मी को विवश कर देती है उन्हें गृह में स्थापित कर देने को।

4. समुद्र मंथन में प्राप्त कर रत्न "लक्ष्मी" का वरण यदि किसी ने किया तो वे साक्षात भगवान् विष्णु। आपने पति की अनुपस्थिति में लक्ष्मी किसी गृह में झांकने तक की भी कल्पना नहीं कर करतीं और भगवान् विष्णु की उपस्थिति का प्रतीक है शालिग्राम, अनंत महायंत्र एवं शंख। शंख, शालिग्राम एवं तुलसी का वृक्ष - इनसे मिलकर बनता है पूर्ण रूप से भगवान् लक्ष्मी - नारायण की उपस्थिति का वातावरण।

5. लक्ष्मी का नाम कमला है। कमलवत उनकी आंखे हैं अथवा उनका आसन कमल ही है और सर्वाधिक प्रिय है - लक्ष्मी को पदम। कमल - गट्टे की माला स्वयं धारण करना आधार और आसन देना है लक्ष्मी को आपने शरीर में लक्ष्मी को समाहित करने के लिए।

6. लक्ष्मी की पूर्णता होती है विघ्न विनाशक श्री गणपति की उपस्तिथि से जो मंगल कर्ता है और प्रत्येक साधना में प्रथम पूज्य। भगवान् गणपति के किसी भी विग्रह की स्थापना किए बिना लक्ष्मी की साधना तो ऐसी है, ज्यों कोई अपना धन भण्डार भरकर उसे खुला छोड़ दे।

7. लक्ष्मी का वास वही सम्भव है, जहां व्यक्ति सदैव सुरुचिपूर्ण वेशभूषा में रहे, स्वच्छ और पवित्र रहे तथा आन्तरिक रूप से निर्मल हो। गंदे, मैले, असभ्य और बक्वासी व्यक्तियों के जीवन में लक्ष्मी का वास संभव ही नहीं।

8. लक्ष्मी का आगमन होता है, जहां पौरुष हो, जहां उद्यम हो, जहां गतिशीलता हो। उद्यमशील व्यक्तित्व ही प्रतिरूप होता है भगवान् श्री नारायण का, जो प्रत्येक क्षण गतिशील है, पालन में संलग्न है, ऐसे ही व्यक्तियों के जीवन में संलग्न है। ऐसे ही व्यक्तियों के जीवन में लक्ष्मी गृहलक्ष्मी बनकर, संतान लक्ष्मी बनकर आय, यश, श्री कई-कई रूपों मे प्रकट होती है।

9. जो साधक गृहस्थ है, उन्हें अपने जीवन मे हवन को महत्वपूर्ण स्थान देना चाहिए और प्रत्येक माह की शुक्ल पंचमी को श्री सूक्त के पदों से एक कमल गट्टे का बीज और शुद्ध घृत के द्वारा आहुति प्रदान करना फलदायक होता है।

10. आपने दैनिक जीवन क्रम में नित्य महालक्ष्मी की किसी ऐसी साधना - विधि को सम्मिलित करना है, जो आपके अनुकूल हो, और यदि इस विषय में निर्णय - अनिर्णय की स्थिति हो तो नित्य प्रति, सूर्योदय काल में निम्न मन्त्र की एक माला का मंत्र जप तो कमल गट्टे की माला से अवश्य करना चाहिए।
मंत्र: ॐ श्रीं श्रीं कमले कमलालाये प्रसीद प्रसीद मम गृहे आगच्छ आगच्छ महालक्ष्म्यै नमः

11. किसी लक्ष्मी साधना को आपने जीवन में अपनायें और उसे किस मन्त्र से संपन्न करे उसका उचित ज्ञान तो केवल आपके गुरुदेव के पास ही है, और योग्य गुरुदेव अपने शिष्य की प्रार्थना पर उसे महालक्ष्मी दीक्षा से विभूषित कर वह गृह्य साधना पद्धति स्पष्ट करते है, जो सम्पूर्ण रूप से उसके संस्कारों के अनुकूल हो।

12. अनुभव से यह ज्ञात होता है की बड़े-बड़े अनुष्ठान की अपेक्षा यदि छोटी साधानाए, मंत्र-जप और प्राण प्रतिष्ठायुक्त यंत्र स्थापित किए जाएं तो जीवन में अनुकूलता तीव्रता से आती है और इसमें हानि की भी कोई संभावना नहीं होती।

13. जीवन में नित्य महालक्ष्मी के चिंतन, मनन और ध्यान के साथ-साथ यंत्रों का स्थापन भी, केवल महत्वपूर्ण ही नहीं, आवश्यक है। श्री यंत्र, कनक धारा यंत्र और कुबेर यंत्र इन तीनों के समन्वय से एक पूर्ण क्रम स्थापित होता है।

14. जब कोई छोटे-छोटे प्रयोग और साधनाएं सफल न हो रही हों तब भी लक्ष्मी की साधना बार-बार अवश्य ही करनी चाहिए।

15. पारद निर्मित प्रत्येक विग्रह आपने आप में सौभाग्यदायक होता है, चाहे वह पारद महालक्ष्मी हो या पारद शंख अथवा पारद श्रीयंत्र। पारद शिवलिंग और पारद गणपति भी आपने आप में लक्ष्मी तत्व समाहित किए होते हैं।

16. जीवन में जब भी अवसर मिले, तब एक बार भगवती महालक्ष्मी के शक्तिमय स्वरूप, कमला महाविद्या की साधना अवश्य ही करनी चाहिए, जिससे जीवन में धन के साथ-साथ पूर्ण मानसिक शांति और श्री का आगमन हो सके।

17. धन का अभाव चिंता जनक स्थिति में पहुंच जाय और लेनदारों के तानों और उलाहनों से जीना मुश्किल हो जाता है, तब श्री महाविद्या साधना साधना करना ही एक मात्र उपाय शेष रह जाता है।

18. जब सभी प्रयोग असफल हो जाएं, तब अघोर विधि से लक्ष्मी प्राप्ति का उपाय ही अंतिम मार्ग शेष रह जाता है, लेकिन इस विषय में एक निश्चित क्रम अपनाना पड़ता है।

19. कई बार ऐसा होता है की घर पर व्याप्त किसी तांत्रिक प्रयोग अथवा गृह दोष या अतृप्त आत्माओं की उपस्थिति के कारण भी वह सम्पन्नता नहीं आ पाती, जो की अन्यथा संभव होती है। ऐसी स्थिति को समझ कर "प्रेतात्मा शांति" पितृ दोष शान्ति करना ही बुद्धिमत्ता है।

20. उपरोक्त सभी उपायों के साथ-साथ सीधा सरल और सात्विक जीवन, दान की भावना, पुण्य कार्य करने में उत्साह, घर की स्त्री का सम्मान और प्रत्येक प्रकार से घर में मंगलमय वातावरण बनाए रखना ही सभी उपायों का पूरक है क्योंकि इसके अभाव में यदि लक्ष्मी का आगमन हो भी जाता है तो स्थायित्व संदिग्ध रह जाता है।

मंत्र शक्ति और प्रभाव - उनके नियम



मंत्र शक्ति और प्रभाव - उनके नियम

मंत्र शक्ति आज के युग में भी पूर्ण सत्य एवं प्रत्येक कसौटी पर खरी हैहमारे ऋषियों ने जब वेद और मंत्रों की रचना की तो उनका उद्देश्य मंत्र और साधना को जीवन में जोड़ना था।
ऋषि केवल साधना करने वाले अथवा जंगलों में आश्रम बनाकर रहने वाले व्यक्ति नही थे, वे उस युग के वैज्ञानिक, चिकित्सक, अध्यापक, राजनीतिज्ञ, कलाकार व्यक्तित्व थे। उन्होंने जो लिखा वह पूर्ण शोध और अनुसंधान से युक्त था।

किसी भी मंत्र का अभ्यास करते समय यदि कुछ नियमों का पालन किया जाये, तो साधक को सफलता निश्चित रूप में मिल सकती है -

सर्वप्रथम आपने जिस मंत्र का भी चयन किया है, उसकी सम्पूर्ण साधना-प्रक्रिया की जानकारी होना नितांत आवश्यक है। यह सत्य है की साधनाओं की जो शास्त्र वर्णित विधि है, उसमे रंचमात्र त्रुटी भी विनाशकारी हो सकती है, साथ ही इस शास्त्र वर्णित विधि में किसी प्रकार का संशोधन स्वयं करना भी उचित नहीं है।

वैसे अधिकतर साधनाओं में पूर्ण शुद्धता, सात्विकता तथा प्राण प्रतिष्ठित सामग्री के प्रयोग का विधान होता है, जबकि कुछ साधनाओं जैसे कर्णपिशाचिनि साधना, घन्टाकर्ण साधना, स्वप्न कर्णपिशाचिनि साधना तथा श्मशान में की जाने वाली समस्त प्रकार की साधनाओं में कुछ क्रियाओं का निषेध व कुछ का विशेष विधान है। इस प्रकार मंत्र साधना की असफलता का सर्वप्रथम कारण सही विधि का निर्धारित ज्ञान न होना है।

एक अन्य ध्यान देने योग्य विषय है - मंत्र का सही व शुद्ध उच्चारण। किसी भी मंत्र का जप प्रारम्भ करने से पूर्व समस्त संधियों को अच्छी प्रकार समझ लें। उच्चारण शुद्ध न होने पर मंत्र शक्ति का वांछित लाभ प्राप्त नहीं होता। मंत्र का जप पूर्ण स्पष्ट व दृढ़ स्वर में किया जाना चाहिए।

जहा तक संभव हो, पूजा-स्थल एकांत में होना चाहिये, जहां की साधना काल में कोई व्यवधान न पड़े।

एक बात सदैव याद रखें, की जिस किसी भी मंत्र का जप आप करते हैं, तो उस पर आस्था, पूर्ण विश्वास रखें। यदि आपको मंत्र और इसकी शक्ति में लेश मात्र भी शंका है व इसकी शक्ति पर पूर्ण आस्था नहीं है, तो आप निर्धारित जप संख्या का दस गुना रूप भी कर लें, तब भी यह निष्फल ही रहेगा।

मंत्र के उच्चारण के समय को एकाग्र रखने की परम आवश्यकता होती है। यदि मंत्र जपते समय विचार स्थिर है, ध्यान पूर्ण एकाग्र है और मंत्र की शक्ति पर पूर्ण आस्था है, तो असफलता का कोई कारण निर्मित ही नहीं होता है।

मंत्र जप आरम्भ करते समय पहले से ही साधना का उद्देश्य मन में रहना चाहिए। साधना के उद्देश्य को बराबर परिवर्तित करना सर्वथा अनुचित है।

उद्देश्य के साथ ही जप जप की संख्या का संकल्प भी प्रारम्भ में लेना चाहिये। जप की संख्या को पहले दिन से दूसरे दिन अधिक किया जा सकता है, किन्तु इसे कभी भी घटाना नहीं चाहिये। अपवाद स्वरुप एक-दो प्रकार की साधनाओं को छोड़कर।

एक ही मंत्र का जप लगातार करने से सम्बन्धित शक्ति जाग्रत रहती है। थोड़े समय तक एक मंत्र छोड़ देने और नये मंत्र प्रारंभ करने से पहले वाले मंत्र की शक्ति का ह्रास तो होता ही है और नये मंत्र को आपको फिर नये सिरे से शुरुआत करनी पड़ती है। पहले एक मंत्र को सिद्ध करना चाहिये, उसके पश्चात किसी अन्य को। एक मंत्र सिद्ध कर लेने पश्चात किसी दूसरे मंत्र को सिद्ध करना पहले मंत्र की तुलना में ज्यादा सरल होता है।

ज्यों-ज्यों आपकी साधना का स्तर बढ़ता जायेगा, सिद्धि की दुरुहता स्वतः ही कम होती जायेगी। किसी भी मंत्र की सिद्धि हेतु अव्रुतियों की जो शास्त्र वर्णित संख्या होती है, वह पहले से ही साधना की उत्तम पृष्ठभूमि रखने वाले साधकों के लिए ही मान्य है, नये साधक को इसका तिन गुना, चार गुना या इससे भी अधिक जप करना पड़ सकता है।

अंत में एक महत्वपूर्ण व ध्यान देने योग्य बात है की मंत्र साधना सही मुहूर्त में की जानी चाहिये। विभिन्न साधनाओं के लिए विभिन्न मुहूर्त निर्धारित है।

...किन्तु मुहूर्त की जटिलताओं से बचने के लिए कुछ मुहूर्त जिनको निश्चित रूप से समस्त साधनाओं हेतु उत्तम माना गया है, वे हैं - होली, दिपावली, शिवरात्री, नवरात्री। आप जिस किसी मंत्र का जप आरम्भ करना चाहते है, उसे इन अवसरों पर निर्धारित संख्या में जप कर उसका दशांश हवन कर लें।

इसके पश्चात् अपनी सुविधा के अनुसार जप कर सकते है। वैसे तो वर्षभर जप करना श्रेष्ठ है, किन्तु एक बार सिद्ध करने के पश्चात ११, २१, ५१ या १०८ की संख्या में जप करने से भी तुरन्त मनोवांछित फल प्राप्त होता है। आप किसी भी मंत्र का जप करते है, उसे वर्ष में एक बार उपरोक्त वर्णित अवसरों पर जाग्रत अवश्य करना चाहिये।

वैसे तो प्रत्येक साधना अपने-आप में अत्यन्त जटिल होती है, किन्तु यदि इन जटिलताओं से साधक बचना चाहे, तो सर्वश्रेष्ठ मार्ग है - 'योग्य गुरु का आश्रय प्राप्त करना'। गुरु के निर्देशानुसार साधना करते समय साधना की सफलता की संभावना शतप्रतिशत रहती है।

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email lalgulab_007@hotmail.com

अष्ट यक्षिणी साधना

अष्ट यक्षिणी साधना

जीवन में रस आवश्यक है
जीवन में सौन्दर्य आवश्यक ह
जीवन में आहलाद आवश्यक है
जीवन में सुरक्षा आवश्यक है

ऐसे श्रेष्ठ जीवन के लिए संपन्न करें
अष्ट यक्षिणी साधना

बहुत से लोग यक्षिणी का नाम सुनते ही डर जाते हैं कि ये बहुत भयानक होती हैं, किसी चुडैल कि तरह, किसी प्रेतानी कि तरह, मगर ये सब मन के वहम हैं। यक्षिणी साधक के समक्ष एक बहुत ही सौम्य और सुन्दर स्त्री के रूप में प्रस्तुत होती है। देवताओं के कोषाध्यक्ष कुबेर स्वयं भी यक्ष जाती के ही हैं। यक्षिणी साधना का साधना के क्षेत्र में एक निश्चित अर्थ है। यक्षिणी प्रेमिका मात्र ही होती है, भोग्या नहीं, और यूं भी कोई स्त्री भोग कि भावभूमि तो हो ही नहीं सकती, वह तो सही अर्थों में सौन्दर्य बोध, प्रेम को जाग्रत करने कि भावभूमि होती है। यद्यपि मन का प्रस्फुटन भी दैहिक सौन्दर्य से होता है किन्तु आगे चलकर वह भी भावनात्मक रूप में परिवर्तित होता है या हो जाना चाहिए और भावना का सबसे श्रेष्ठ प्रस्फुटन तो स्त्री के रूप में सहगामिनी बना कर एक लौकिक स्त्री के सन्दर्भ में सत्य है तो क्यों नहीं यक्षिणी के संदर्भ में सत्य होगी? वह तो प्रायः कई अर्थों में एक सामान्य स्त्री से श्रेष्ठ स्त्री होती है।

तंत्र विज्ञान के रहस्य को यदि साधक पूर्ण रूप से आत्मसात कर लेता है, तो फिर उसके सामाजिक या भौतिक समस्या या बाधा जैसी कोई वस्तु स्थिर नहीं रह पाती। तंत्र विज्ञान का आधार ही है, कि पूर्ण रूप से अपने साधक के जीवन से सम्बन्धित बाधाओं को समाप्त कर एकाग्रता पूर्वक उसे तंत्र के क्षेत्र में बढ़ने के लिए अग्रसर करे।

साधक सरलतापूर्वक तंत्र कि व्याख्या को समझ सके, इस हेतु तंत्र में अनेक ग्रंथ प्राप्त होते हैं, जिनमे अत्यन्त गुह्य और दुर्लभ साधानाएं वर्णित है। साधक यदि गुरु कृपा प्राप्त कर किसी एक तंत्र का भी पूर्ण रूप से अध्ययन कर लेता है, तो उसके लिए पहाड़ जैसी समस्या से भी टकराना अत्यन्त लघु क्रिया जैसा प्रतीत होने लगता है।

साधक में यदि गुरु के प्रति विश्वास न हो, यदि उसमे जोश न हो, उत्साह न हो, तो फिर वह साधनाओं में सफलता नहीं प्राप्त कर सकता। साधक तो समस्त सांसारिक क्रियायें करता हुआ भी निर्लिप्त भाव से अपने इष्ट चिन्तन में प्रवृत्त रहता है।

ऐसे ही साधकों के लिए 'उड़ामरेश्वर तंत्र' मे एक अत्यन्त उच्चकोटि कि साधना वर्णित है, जिसे संपन्न करके वह अपनी समस्त मनोकामनाओं को पूर्ण कर सकता है तथा अपने जीवन में पूर्ण भौतिक सुख-सम्पदा का पूर्ण आनन्द प्राप्त कर सकता है।

'अष्ट यक्षिणी साधना' के नाम से वर्णित यह साधना प्रमुख रूप से यक्ष की श्रेष्ठ रमणियों, जो साधक के जीवन में सम्पूर्णता का उदबोध कराती हैं, की ये है।

ये प्रमुख यक्षिणियां है -

1. सुर सुन्दरी यक्षिणी २. मनोहारिणी यक्षिणी 3. कनकावती यक्षिणी 4. कामेश्वरी यक्षिणी
5. रतिप्रिया यक्षिणी 6. पद्मिनी यक्षिणी 6. नटी यक्षिणी 8. अनुरागिणी यक्षिणी

प्रत्येक यक्षिणी साधक को अलग-अलग प्रकार से सहयोगिनी होती है, अतः साधक को चाहिए कि वह आठों यक्षिणियों को ही सिद्ध कर लें।

सुर सुन्दरी यक्षिणी
यह सुडौल देहयष्टि, आकर्षक चेहरा, दिव्य आभा लिये हुए, नाजुकता से भरी हुई है। देव योनी के समान सुन्दर होने से कारण इसे सुर सुन्दरी यक्षिणी कहा गया है। सुर सुन्दरी कि विशेषता है, कि साधक उसे जिस रूप में पाना चाहता हैं, वह प्राप्त होता ही है - चाहे वह माँ का स्वरूप हो, चाहे वह बहन का या पत्नी का, या प्रेमिका का। यह यक्षिणी सिद्ध होने के पश्चात साधक को ऐश्वर्य, धन, संपत्ति आदि प्रदान करती है।

मनोहारिणी यक्षिणी
अण्डाकार चेहरा, हरिण के समान नेत्र, गौर वर्णीय, चंदन कि सुगंध से आपूरित मनोहारिणी यक्षिणी सिद्ध होने के पश्चात साधक के व्यक्तित्व को ऐसा सम्मोहन बना देती है, कि वह कोई भी, चाहे वह पुरूष हो या स्त्री, उसके सम्मोहन पाश में बंध ही जाता है। वह साधक को धन आदि प्रदान कर उसे संतुष्ट कराती है।
कनकावती यक्षिणी
रक्त वस्त्र धारण कि हुई, मुग्ध करने वाली और अनिन्द्य सौन्दर्य कि स्वामिनी, षोडश वर्षीया, बाला स्वरूपा कनकावती यक्षिणी है। कनकावती यक्षिणी को सिद्ध करने के पश्चात साधक में तेजस्विता तथा प्रखरता आ जाती है, फिर वह विरोधी को भी मोहित करने कि क्षमता प्राप्त कर लेता है। यह साधक की प्रत्येक मनोकामना को पूर्ण करने मे सहायक होती है।

कामेश्वरी यक्षिणी
सदैव चंचल रहने वाली, उद्दाम यौवन युक्त, जिससे मादकता छलकती हुई बिम्बित होती है। साधक का हर क्षण मनोरंजन करती है कामेश्वरी यक्षिणी। यह साधक को पौरुष प्रदान करती है तथा पत्नी सुख कि कामना करने पर पूर्ण पत्निवत रूप में साधक कि कामना करती है। साधक को जब भी द्रव्य कि आवश्यकता होती है, वह तत्क्षण उपलब्ध कराने में सहायक होती है।

रति प्रिया यक्षिणी
स्वर्ण के समान देह से युक्त, सभी मंगल आभूषणों से सुसज्जित, प्रफुल्लता प्रदान करने वाली है रति प्रिया यक्षिणी। रति प्रिया यक्षिणी साधक को हर क्षण प्रफुल्लित रखती है तथा उसे दृढ़ता भी प्रदान करती है। साधक और साधिका यदि संयमित होकर इस साधना को संपन्न कर लें तो निश्चय ही उन्हें कामदेव और रति के समान सौन्दर्य कि उपलब्धि होती है।

पदमिनी यक्षिणी
कमल के समान कोमल, श्यामवर्णा, उन्नत स्तन, अधरों पर सदैव मुस्कान खेलती रहती है, तथा इसके नेत्र अत्यधिक सुन्दर है। पद्मिनी यक्षिणी साधना साधक को अपना सान्निध्य नित्य प्रदान करती है। इसकी सबसे बड़ी विशेषता यह है, कि यह अपने साधक में आत्मविश्वास व स्थिरता प्रदान कराती है तथा सदैव उसे मानसिक बल प्रदान करती हुई उन्नति कि और अग्रसर करती है।

नटी यक्षिणी
नटी यक्षिणी को 'विश्वामित्र' ने भी सिद्ध किया था। यह अपने साधक कि पूर्ण रूप से सुरक्षा करती है तथा किसी भी प्रकार कि विपरीत परिस्थितियों में साधक को सरलता पूर्वक निष्कलंक बचाती है।

अनुरागिणी यक्षिणी
अनुरागिणी यक्षिणी शुभ्रवर्णा है। साधक पर प्रसन्न होने पर उसे नित्य धन, मान, यश आदि प्रदान करती है तथा साधक की इच्छा होने पर उसके साथ उल्लास करती है।

अष्ट यक्षिणी साधना को संपन्न करने वाले साधक को यह साधना अत्यन्त संयमित होकर करनी चाहिए। समूर्ण साधना काल में ब्रह्मचर्य का पालन अनिवार्य है। साधक यह साधना करने से पूर्व यदि सम्भव हो तो 'अष्ट यक्षिणी दीक्षा' भी लें। साधना काल में मांस, मदिरा का सेवन न करें तथा मानसिक रूप से निरंतर गुरु मंत्र का जप करते रहे। यह साधना रात्रिकाल में ही संपन्न करें। साधनात्मक अनुभवों की चर्चा किसी से भी नहीं करें, न ही किसी अन्य को साधना विषय में बतायें। निश्चय ही यह साधना साधक के जीवन में भौतिक पक्ष को पूर्ण करने मे अत्यन्त सहायक होगी, क्योंकि अष्ट यक्षिणी सिद्ध साधक को जीवन में कभी भी निराशा या हार का सामना नहीं करना पड़ता है। वह अपने क्षेत्र में अद्वितीयता प्राप्त करता ही है।

साधना विधान

इस साधना में आवश्यक सामग्री है - ८ अष्टाक्ष गुटिकाएं तथा अष्ट यक्षिणी सिद्ध यंत्र एवं 'यक्षिणी माला'। साधक यह साधना किसी भी शुक्रवार को प्रारम्भ कर सकता है। यह तीन दिन की साधना है। लकड़ी के बजोट पर सफेद वस्त्र बिछायें तथा उस पर कुंकुम से निम्न यंत्र बनाएं। (इस यंत्र की फोटो आपको मंत्र-तंत्र-यंत्र विज्ञान पत्रिका में मिलेगी)

फिर उपरोक्त प्रकार से रेखांकित यंत्र में जहां 'ह्रीं' बीज अंकित है वहां एक-एक अष्टाक्ष गुटिका स्थापित करें। फिर अष्ट यक्षिणी का ध्यान कर प्रत्येक गुटिका का पूजन कुंकूम, पुष्प तथा अक्षत से करें। धुप तथा दीप लगाएं। फिर यक्षिणी से निम्न मूल मंत्र की एक माला मंत्र जप करें, फिर क्रमानुसार दिए गए हुए आठों यक्षिणियों के मंत्रों की एक-एक माला जप करें। प्रत्येक यक्षिणी मंत्र की एक माला जप करने से पूर्व तथा बाद में मूल मंत्र की एक माला मंत्र जप करें। उदाहरणार्थ पहले मूल मंत्र की एक माला जप करें, फिर सुर-सुन्दरी यक्षिणी मंत्र की एक माला मंत्र जप करें, फिर मूल मंत्र की एक माला मंत्र जप करें, फिर क्रमशः प्रत्येक यक्षिणी से सम्बन्धित मंत्र का जप करना है। ऐसा तीन दिन तक नित्य करें।

मूल अष्ट यक्षिणी मंत्र
॥ ॐ ऐं श्रीं अष्ट यक्षिणी सिद्धिं सिद्धिं देहि नमः ॥

सुर सुन्दरी मंत्र
॥ ॐ ऐं ह्रीं आगच्छ सुर सुन्दरी स्वाहा ॥

मनोहारिणी मंत्र
॥ ॐ ह्रीं आगच्छ मनोहारी स्वाहा ॥

कनकावती मंत्र
॥ ॐ ह्रीं हूं रक्ष कर्मणि आगच्छ कनकावती स्वाहा ॥

कामेश्वरी मंत्र
॥ ॐ क्रीं कामेश्वरी वश्य प्रियाय क्रीं ॐ ॥

रति प्रिया मंत्र
॥ ॐ ह्रीं आगच्छ आगच्छ रति प्रिया स्वाहा ॥

पद्मिनी मंत्र
॥ ॐ ह्रीं आगच्छ आगच्छ पद्मिनी स्वाहा ॥

नटी मंत्र
॥ ॐ ह्रीं आगच्छ आगच्छ नटी स्वाहा ॥
अनुरागिणी मंत्र
॥ ॐ ह्रीं अनुरागिणी आगच्छ स्वाहा ॥
मंत्र जप समाप्ति पर साधक साधना कक्ष में ही सोयें। अगले दिन पुनः इसी प्रकार से साधना संपन्न करें, तीसरे दिन साधना साधना सामग्री को जिस वस्त्र पर यंत्र बनाया है, उसी में बांध कर नदी में प्रवाहित कर दें।

Monday, August 4, 2008

To Perform Havan


Sit in Sukh asan on four times folded Blanket and Blanket must be on mat.

Close your eyes and concentrate between two eyebrows and chant Gyatri Mantar 3 Times within Heart not by Mouth .
Then open your eyes .
Take spoon of water in Right Palm .

OM AMRITA APIDHANAMSI SWAHA AND DRIVE WATER .

OM SATYAM YASHAH SHRI MYISHRI SHRAYTAAM SWAHA

And take water ,

Then work right palm while sitting with some water kept in bowl.
Havan samagri 11,21,52,Times ( 21 Herbs required for Havan)