Thursday, May 17, 2012

रिश्ते हमारी सम्पत्ति भी है

हर इंसान के पास एक संपत्ति बहुत बड़ी है जिसका नाम है परिवार। परिवार और रिश्ते हमारी सबसे बड़ी पूंजी है। इस के लिए कोई भी कीमत चुकाई जा सकती है। जो इसका मूल्य समझ जाए वो संसार को भी समझ जाएगा। कर्तव्य और हमारे बीच या यूं कहें धर्म और हमारे बीच की ही एक डोर परिवार और रिश्ते भी होते हैं।
परमात्मा ने हमें इसी को सहेजने की जिम्मेदारी भी दी है, हर आदमी इसी के बोझ से झुका हुआ भी है। घर-परिवार में माता-पिता या बड़ों के प्रति क्या कर्तव्य होता है इसका उदाहरण हमे रामचरितमानस में देखने को मिलता है। राम ने रिश्तों की मर्यादाओं को कैसे सहेजा, रिश्तों के लिए कितना त्याग किया, यह सबसे बड़ा उदाहरण है।
रामायण के उस दृश्य में चलें जहां, एक दिन पहले राजतिलक की घोषणा हुई, खुशियां मनाई गईं, बधाइयों का तातां लग गया लेकिन अगले ही दिन राजतिलक होने की बजाय एकाएक 14 वर्षों के लिए वनवास दे दिया गया। वनवास की आज्ञा पाकर भी राम के चेहरे पर शिकन तक नहीं आई। पिता के वचन को सबसे ऊपर माना। राज-पाठ के लिए रिश्तों की बलि नहीं चढ़ाई। वन जाने की आज्ञा पाकर राम ने उसे अपना प्रमुख कर्तव्य माना। पिता की आज्ञा को ही अपना पहला कर्तव्य मानकर राम ने कुछ इस तरह का जवाब दिया।
राम अपने पिता दशरथ से कहते हैं कि आपकी आज्ञा पालन करके  मैं अपने इस मनुष्य जन्म का फल पाकर जल्दी ही लौट आउंगा। इसलिये आप बड़ी कृपा करके मुझे वन जाने की आज्ञा दीजिये।
ये वो लम्हा था जिसमें कोई भी कमजोर आदमी टूटकर रिश्तों की मर्यादा भूल सकता है। हमारे इतिहास में ऐसे भी उदाहरण है जब राजगद्दी के लिए पुत्रों ने पिताओं को जेल में डाल दिया। वहीं राम रिश्तों की एक नई परिभाषा देते हैं। रिश्तों के प्रति अपने कर्तव्य को ऊंचा मानते हैं।

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