मन्त्रों का वैज्ञानिक महत्वः-
मंत्र ध्वनि-विज्ञान का शूक्ष्मतम विज्ञान है। मंत्र-शरीर के अन्दर से शूक्ष्म ध्वनि को विशिष्ट तरंगों में बदल कर ब्रह्मांड में प्रवाहित करने की क्रिया है जिससे बड़े-बड़े कार्य किये जा सकते हैं। प्रत्येक अक्षर का विशेष महत्व है। प्रत्येक अक्षर का विशेष अर्थ है। प्रत्येक अक्षर के उच्चारण में चाहे वो वाचिक,उपांसू या मानसिक हो विशेष प्रकार की ध्वनि निकलती है तथा शरीर में एवं विशेष अंगो नाड़ियों में विशेष प्रकार का कम्पन पैदा करती हैं जिससे शरीर से विशेष प्रकार की ध्वनि तरंगे/विद्युत निकलती है जो वातावरण/आकाशीय तरंगो से संयोग करके विशेष प्रकार की क्रिया करती हैं।विभिन्न अक्षर(स्वर-व्यंजन) एक प्रकार के बीज मंत्र हैं। विभिन्न अक्षरों के संयोग से विशेष बीज मंत्र तैयार होते है जो एक विशेष प्रकार का प्रभाव डालते हैं, परन्तु जैसे अंकुर उत्पन्न करने में समर्थ सारी शक्ति अपने में रखते हुये भी धान,जौ,गेहूँ अदि संसकार के अभाव में अंकुर उत्पन्न नहीं कर सकते वैसे ही मंत्र-यज्ञ आदि कर्म भी सम्पूर्ण फल जनन शक्ति से सम्पन्न होने पर भी यदि ठीक-ठीक से अनुष्ठित न किये जाय तो कदापि फलोत्पादक नहीं होता है।
घर्षण के नियमों से सभी विज्ञानवेत्ता भलीभातिं परचित होगें। घर्षण से ऊर्जा(ताप,विद्युत) आदि पैदा होती है। मंत्रों के जप से भी श्वांश के शरीर में आवागमन से तथा विशेष अक्षरों के अनुसार विशेष स्थानों की नाड़ियों में कम्पन(घर्षण) पैदा होने से विशेष प्रकार का विद्युत प्रवाह पैदा होता है, जो साधक के ध्यान लगाने से एकाग्रित (एकत्रित) होता है तथा मंत्रों के अर्थ (साधक को अर्थ ध्यान रखते हुए उसी भाव से ध्यान एकाग्र करना आवश्यक होता है।) के आधार पर ब्रह्मांड में उपस्थित अपने ही अनुकूल(ग्रहण करने योग्य) उर्जा से संपर्क करके तदानुसार प्रभाव पैदा करता है। रेडियो,टी०वी० या अन्य विद्युत उपकरणों में आजकल रिमोट कन्ट्रोल का सामान्य रूप से प्रयोग देखा जा सकता है। इसका सिद्धान्त भी वही है। मंत्रों के जप से निकलने वाली सूक्ष्म उर्जा भी ब्रह्मांड की उर्जा से संयोंग करके वातावरण पर बिशेष प्रभाव डालती है। हमारे ऋषि-मुनियों ने दीर्घकाल तक अक्षरों, मत्राओं, श्वरों पर मनन, चिन्तन एवं उसपर अध्ययन प्रयोग, अनुसंधान करके उनकी शक्तियों को पहचाना जिनका वर्णन वेद पुराणों आदि में किया है। इन्ही मंत्र शक्तियों से आश्चर्यजनक कार्य किया जो अविश्वसनीय से लगते हैं,यद्यपि समय के थपेड़ो के कारण उनके वर्णनों में कुछ अपभ्रंस सामिल हो जाने के वावजूद भी उनमें अभी भी काफी वैज्ञानिक अंश ऊपलब्ध है, बस थोड़ा सा उनके वास्तविक सन्दर्भ को दृष्टिगत रखते हुए प्रयोग करके प्रमाणित करने की आवश्यकता है|
मंत्र विज्ञानः-मंत्र विज्ञान का सच यही है कि यह वाणी* की ध्वनि के विद्युत रूपान्तरण की अनोखी विधि है। हमारा जीवन,हमारा शरीर और सम्पूर्ण ब्रह्मांण जिस उर्जा के सहारे काम करता है,उसके सभी रूप प्रकारान्तर में विद्युत के ही विविध रूप हैं। मंत्र-विद्या में प्रयोग होने वाले अक्षरों की ध्वनि (उच्चारण की प्रकृति अक्षरों का दीर्घ या अर्धाक्षर, विराम, अर्धविराम आदि मात्राओं) इनके सूक्ष्म अंतर प्रत्यन्तर मंत्र-विद्या के अन्तर-प्रत्यन्तरों के अनुरूप ही प्रभावित व परिवर्तित किये जा सकते हैं। मंत्र-विज्ञान के अक्षर जो मनुष्य की वाणी की ध्वनि जो शरीर की विभिन्न नाड़ियों के कम्पन से पैदा होते हैं तथा जो कि मानव के ध्यान एवं भाव के संयोग से ही विशेष प्रकार कि विद्युत धारा उत्पन्न करते हैं वही जैव-विद्युत आन्तरिक या बाह्य वातावरण को अपने अनुसार ही प्रभावित करके परिणाम उत्पन्न करती है।
शारीरिक रोग उत्पन्न होने का कारण भी यही है कि जैव-विद्युत के चक्र का अव्यवस्थित हो जाना। जैव-विद्युत की लयबद्धता का लड़खड़ा जाना ही रोग की अवस्था है। जब हमारे शरीर में उर्जा का स्तर निम्न हो जाता है तब अकर्मण्यता आती है। मंत्र जप के माध्यम से ब्रह्मांणीय उर्जा-प्रवाह को ग्रहण-धारण करके अपने शरीर के अन्दर की उर्जा का स्तर ऊचा उठाया जा सकता है और अकर्मण्यता को उत्साह में बदला जा सकता है। चुकि संसार के प्राणी एवं पदार्थ सब एक ही महत चेतना के अंशधर है,इसलिये मन में उठे संकल्प का परिपालन पदार्थ चेतना आसानी से करने लगती है। जब संकल्प शक्ति क्रियान्वित होती है तो फिर इच्छानुसार प्रभाव एवं परिवर्तन भी आरम्भ हो जाता है।मंत्र साधना से मन, बुद्धि, चित अहंकार में असाधारण परिवर्तन होता हे। विवेक, दूरदर्शिता, तत्वज्ञान और ऋतमभरा बुद्धि के विशेष रूप से उत्पन्न होने के कारण अनेक अज्ञान जन्य दुखों का निवारण हो जाता है।
(* वाणी:- चत्वारि वाक्परिमिता पदानि तानि विदुर्ब्राह्मणा ये मनीषिणः।
गुहा त्रीणि निहिता नेङ्गयन्ति तुरीयं वाचो मनुष्या वदन्ति।। (ऋग्वेद १।१६४।४५)
मनीषियों द्वारा यह ज्ञात हुआ है कि वाणी के चार चरण है, इनमें से तीन वाणियाँ (परा,पश्यन्ती तथा मध्यमा) प्रकट नहीं होती।गुफा में ही छिपी रहती हैं सभी मनुष्य वाणी के चौथे चरण (बैखरी) को ही बोलते हैं। शेष तीन वाणियोँ में शब्दोच्चार तो नहीं होता है किन्तु शक्तियों का भण्डागार छिपा रहता है।
वैखरी वाणी - वैखरी वाणी वार्तालाप में बोली जाती है यह मनुष्यों की वाणी है।
मध्यमा वाणी - मध्यमा वाणी में शब्दों का उच्चारण नहीं होता परन्तु संकेतों, हाव-भाव से अभिप्राय प्रकट होता है। बिना कुछ कहे-सुने भी व्यक्ति एक दूसरे की मनःस्थिति से अवगत हो सकते हैं।
परावाणी - यह विचारों के रूप में मस्तिष्क में चलती रहती है। इसका प्रत्यक्ष प्रकटीकरण तो मुखाकृति से भी नाम मात्र ही हो सकता है। यह बिना स्पर्श के भी विद्युत तरंगों के माध्यम से वातावरण में उर्जा का संचार करके दूसरों तक फैला देती है।
पश्यन्ती वाणी - पश्यन्ति वाणी का उदगम अन्तःकरण है, जिसमें से प्रभावशाली प्रवाह उदभूत करने के लिये यह आवश्यक है कि स्थूल शरीर के कार्यकलाप, सूक्ष्म शरीर के चिन्तन और कारण शरीर के सदभाव उच्च कोटि के रहें। इन सबकी संयुक्त उत्कृष्टता ही पश्यन्ति वाणी का निर्माण करती है। वह इतनी तीब्र हो सकती है कि अनाचार से लड़ सकती है तथा सत्प्रवृतियाँ दूरगामी प्रभाव ड़ाल सकती हैं।)
Mantarvigyan.blogspot.com
lalgulab_007@hotmail.com
मंत्र ध्वनि-विज्ञान का शूक्ष्मतम विज्ञान है। मंत्र-शरीर के अन्दर से शूक्ष्म ध्वनि को विशिष्ट तरंगों में बदल कर ब्रह्मांड में प्रवाहित करने की क्रिया है जिससे बड़े-बड़े कार्य किये जा सकते हैं। प्रत्येक अक्षर का विशेष महत्व है। प्रत्येक अक्षर का विशेष अर्थ है। प्रत्येक अक्षर के उच्चारण में चाहे वो वाचिक,उपांसू या मानसिक हो विशेष प्रकार की ध्वनि निकलती है तथा शरीर में एवं विशेष अंगो नाड़ियों में विशेष प्रकार का कम्पन पैदा करती हैं जिससे शरीर से विशेष प्रकार की ध्वनि तरंगे/विद्युत निकलती है जो वातावरण/आकाशीय तरंगो से संयोग करके विशेष प्रकार की क्रिया करती हैं।विभिन्न अक्षर(स्वर-व्यंजन) एक प्रकार के बीज मंत्र हैं। विभिन्न अक्षरों के संयोग से विशेष बीज मंत्र तैयार होते है जो एक विशेष प्रकार का प्रभाव डालते हैं, परन्तु जैसे अंकुर उत्पन्न करने में समर्थ सारी शक्ति अपने में रखते हुये भी धान,जौ,गेहूँ अदि संसकार के अभाव में अंकुर उत्पन्न नहीं कर सकते वैसे ही मंत्र-यज्ञ आदि कर्म भी सम्पूर्ण फल जनन शक्ति से सम्पन्न होने पर भी यदि ठीक-ठीक से अनुष्ठित न किये जाय तो कदापि फलोत्पादक नहीं होता है।
घर्षण के नियमों से सभी विज्ञानवेत्ता भलीभातिं परचित होगें। घर्षण से ऊर्जा(ताप,विद्युत) आदि पैदा होती है। मंत्रों के जप से भी श्वांश के शरीर में आवागमन से तथा विशेष अक्षरों के अनुसार विशेष स्थानों की नाड़ियों में कम्पन(घर्षण) पैदा होने से विशेष प्रकार का विद्युत प्रवाह पैदा होता है, जो साधक के ध्यान लगाने से एकाग्रित (एकत्रित) होता है तथा मंत्रों के अर्थ (साधक को अर्थ ध्यान रखते हुए उसी भाव से ध्यान एकाग्र करना आवश्यक होता है।) के आधार पर ब्रह्मांड में उपस्थित अपने ही अनुकूल(ग्रहण करने योग्य) उर्जा से संपर्क करके तदानुसार प्रभाव पैदा करता है। रेडियो,टी०वी० या अन्य विद्युत उपकरणों में आजकल रिमोट कन्ट्रोल का सामान्य रूप से प्रयोग देखा जा सकता है। इसका सिद्धान्त भी वही है। मंत्रों के जप से निकलने वाली सूक्ष्म उर्जा भी ब्रह्मांड की उर्जा से संयोंग करके वातावरण पर बिशेष प्रभाव डालती है। हमारे ऋषि-मुनियों ने दीर्घकाल तक अक्षरों, मत्राओं, श्वरों पर मनन, चिन्तन एवं उसपर अध्ययन प्रयोग, अनुसंधान करके उनकी शक्तियों को पहचाना जिनका वर्णन वेद पुराणों आदि में किया है। इन्ही मंत्र शक्तियों से आश्चर्यजनक कार्य किया जो अविश्वसनीय से लगते हैं,यद्यपि समय के थपेड़ो के कारण उनके वर्णनों में कुछ अपभ्रंस सामिल हो जाने के वावजूद भी उनमें अभी भी काफी वैज्ञानिक अंश ऊपलब्ध है, बस थोड़ा सा उनके वास्तविक सन्दर्भ को दृष्टिगत रखते हुए प्रयोग करके प्रमाणित करने की आवश्यकता है|
मंत्र विज्ञानः-मंत्र विज्ञान का सच यही है कि यह वाणी* की ध्वनि के विद्युत रूपान्तरण की अनोखी विधि है। हमारा जीवन,हमारा शरीर और सम्पूर्ण ब्रह्मांण जिस उर्जा के सहारे काम करता है,उसके सभी रूप प्रकारान्तर में विद्युत के ही विविध रूप हैं। मंत्र-विद्या में प्रयोग होने वाले अक्षरों की ध्वनि (उच्चारण की प्रकृति अक्षरों का दीर्घ या अर्धाक्षर, विराम, अर्धविराम आदि मात्राओं) इनके सूक्ष्म अंतर प्रत्यन्तर मंत्र-विद्या के अन्तर-प्रत्यन्तरों के अनुरूप ही प्रभावित व परिवर्तित किये जा सकते हैं। मंत्र-विज्ञान के अक्षर जो मनुष्य की वाणी की ध्वनि जो शरीर की विभिन्न नाड़ियों के कम्पन से पैदा होते हैं तथा जो कि मानव के ध्यान एवं भाव के संयोग से ही विशेष प्रकार कि विद्युत धारा उत्पन्न करते हैं वही जैव-विद्युत आन्तरिक या बाह्य वातावरण को अपने अनुसार ही प्रभावित करके परिणाम उत्पन्न करती है।
शारीरिक रोग उत्पन्न होने का कारण भी यही है कि जैव-विद्युत के चक्र का अव्यवस्थित हो जाना। जैव-विद्युत की लयबद्धता का लड़खड़ा जाना ही रोग की अवस्था है। जब हमारे शरीर में उर्जा का स्तर निम्न हो जाता है तब अकर्मण्यता आती है। मंत्र जप के माध्यम से ब्रह्मांणीय उर्जा-प्रवाह को ग्रहण-धारण करके अपने शरीर के अन्दर की उर्जा का स्तर ऊचा उठाया जा सकता है और अकर्मण्यता को उत्साह में बदला जा सकता है। चुकि संसार के प्राणी एवं पदार्थ सब एक ही महत चेतना के अंशधर है,इसलिये मन में उठे संकल्प का परिपालन पदार्थ चेतना आसानी से करने लगती है। जब संकल्प शक्ति क्रियान्वित होती है तो फिर इच्छानुसार प्रभाव एवं परिवर्तन भी आरम्भ हो जाता है।मंत्र साधना से मन, बुद्धि, चित अहंकार में असाधारण परिवर्तन होता हे। विवेक, दूरदर्शिता, तत्वज्ञान और ऋतमभरा बुद्धि के विशेष रूप से उत्पन्न होने के कारण अनेक अज्ञान जन्य दुखों का निवारण हो जाता है।
(* वाणी:- चत्वारि वाक्परिमिता पदानि तानि विदुर्ब्राह्मणा ये मनीषिणः।
गुहा त्रीणि निहिता नेङ्गयन्ति तुरीयं वाचो मनुष्या वदन्ति।। (ऋग्वेद १।१६४।४५)
मनीषियों द्वारा यह ज्ञात हुआ है कि वाणी के चार चरण है, इनमें से तीन वाणियाँ (परा,पश्यन्ती तथा मध्यमा) प्रकट नहीं होती।गुफा में ही छिपी रहती हैं सभी मनुष्य वाणी के चौथे चरण (बैखरी) को ही बोलते हैं। शेष तीन वाणियोँ में शब्दोच्चार तो नहीं होता है किन्तु शक्तियों का भण्डागार छिपा रहता है।
वैखरी वाणी - वैखरी वाणी वार्तालाप में बोली जाती है यह मनुष्यों की वाणी है।
मध्यमा वाणी - मध्यमा वाणी में शब्दों का उच्चारण नहीं होता परन्तु संकेतों, हाव-भाव से अभिप्राय प्रकट होता है। बिना कुछ कहे-सुने भी व्यक्ति एक दूसरे की मनःस्थिति से अवगत हो सकते हैं।
परावाणी - यह विचारों के रूप में मस्तिष्क में चलती रहती है। इसका प्रत्यक्ष प्रकटीकरण तो मुखाकृति से भी नाम मात्र ही हो सकता है। यह बिना स्पर्श के भी विद्युत तरंगों के माध्यम से वातावरण में उर्जा का संचार करके दूसरों तक फैला देती है।
पश्यन्ती वाणी - पश्यन्ति वाणी का उदगम अन्तःकरण है, जिसमें से प्रभावशाली प्रवाह उदभूत करने के लिये यह आवश्यक है कि स्थूल शरीर के कार्यकलाप, सूक्ष्म शरीर के चिन्तन और कारण शरीर के सदभाव उच्च कोटि के रहें। इन सबकी संयुक्त उत्कृष्टता ही पश्यन्ति वाणी का निर्माण करती है। वह इतनी तीब्र हो सकती है कि अनाचार से लड़ सकती है तथा सत्प्रवृतियाँ दूरगामी प्रभाव ड़ाल सकती हैं।)
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