Saturday, November 5, 2016

काला जादू और विज्ञानं

काले जादू (Black Magic, Kala Jadoo) से जुडी कुछ रोचक बातें । हम आपको भारत के एक ऐसे गांव के बारे में बता रहे है जिसे काले जादू का गढ़ माना जाता है। जिसके लगभग हर घर में काला जादू होता है। कहते हैं काले जादू से किसी पुतले पर सुई चुभोकर इंसान को तकलीफ दी जा सकती है। उसे वश करके मनचाहा काम करवाया जा सकता है। इंसान को जानवर बनाया जा सकता है। यही कारण है कि आज भी काले जादू का नाम आते ही लोगों के दिमाग में सबसे पहले नींबू, मिर्च, सुई, पुतला और खौफ आता है।
                             
भारत में काले जादू का प्रचलन यूं तो सदियों से रहा है। मगर असम का मायोंग गांव ऐसा है जिसे काले जादू का गढ़ माना जाता है। इस गांव का नाम लेने से भी आसपास के गांव वाले डरते हैं। यहां के हर घर में आज भी जादू किया जाता है। मान्यता है कि पूरे विश्व में काले जादू की शुरुआत इसी जगह से हुई है। असम का ये छोटा सा गांव मायोंग गुवाहाटी से लगभग 40 कि.मी. दूर है।
महाभारत काल का है इतिहास
मायोंग नाम संस्कृत शब्द माया से लिया गया है। महाभारत में भी मायोंग का जिक्र आता है। माना जाता है की भीम का मायावी पुत्र घटोत्कच मायोंग का ही राजा था।
गायब कर दी थी पूरी सेना 
कहा जाता है 1332 में असम पर मुग़ल बादशाह मोहम्मद शाह ने एक लाख घुड़सवारों के साथ चढ़ाई की थी। तब यहां हज़ारों तांत्रिक मौजूद थे, उन्होंने मायोंग को बचाने के लिए एक ऐसी दीवार खड़ी कर दी थी जिसको पार करते ही सैनिक गायब हो जाते थे।
गांव से डरते है लोग
दुनियाभर से काला जादू सीखने और रिसर्च के लिए लोग मायोंग आते हैं। मगर आसपास के गांव के लोग यहां आने से डरते हैं। यहां आने वाले अधिकतर लोग काले जादू से बीमारियों को दूर करने या किसी और पर काला जादू करवाने के लिए आते हैं।
बौद्ध और हिन्दू साथ करते थे काला जादू
यहां दो कुंड है एक अष्टदल कुंड व दूसरा योनि कुंड। योनि कुंड पर हिन्दू व अष्टदल कुंड पर बौद्ध साधना किया करते थे। यहां 12 वीं शताब्दी की कई पांडुलिपियां मौजूद हैं। ये काले जादू के वे कीमती दस्तावेज़ हैं जिनका मूल्य केवल इस भाषा को समझने वाले ही बता सकते हैं।
बूढ़े मायोंग में होता है काला जादू
मायोंग में बूढ़े मायोंग नाम की एक जगह है, जिसे काले जादू का केंद्र माना जाता है, यहां शिव, पार्वती व गणेश की तांत्रिक प्रतिमा है, जहां सदियों पहले नरबलि दी जाती थी। यहां योनि कुंड भी है जिस पर कई मन्त्र लिखे हैं। मान्यता है कि मंत्र शक्ति के कारण ये कुंड हमेशा पानी से भरा रहता है।
यहां आने से क्यों डरते हैं लोग
माना जाता है कि यहां लोग गायब हो जाते है या फिर जानवरों में बदल जाते हैं। ये भी कहा जाता है की यहां लोग सम्मोहन से जंगली जानवरों को पालतू बना लेते हैं। काला जादू पीढ़ियों से चल रहा है। नई पीढ़ियों को भी आवश्यक रूप से सिखाया जाता है।
भलाई के लिए करते है जादू
मायोंग के लोग काले जादू का उपयोग केवल समाज की भलाई के लिए करते है। हालांकि कई विधाएं जानते है लेकिन वे इसका उपयोग केवल लोगों की बीमारियां ठीक करने और चोरों को पकड़ने के लिए करते है।
कैसे होता है काला जादू 
यह दुर्लभ प्रक्रिया है कुछ ही लोग इसे करने में सक्षम होते हैं। इसमें बेसन, उडद के आटे आदि से बनी गुड़िया का उपयोग होता है। जिस पर जादू करना होता है उसका नाम लेकर पुतले को जाग्रत किया जाता है।
अफ़्रीकी देशों में कहते है वूडू 
सन 1847 में डेंटर नाम की वूडू देवी एक पेड़ से अवतरित हुई थी। उसने कई लोगों की बीमारियां और परेशानियां अपने जादू से दूर कर दी। तभी से वहां वूडू का प्रचलन शुरू हुआ।
काला जादू और विज्ञानं 
जानकारों का मानना है ये जादू और कुछ नहीं बस एक बंच ऑफ एनर्जी है। जो एक स्थान से दूसरे स्थान तक भेजा जाता है या कहें एक इंसान के द्वारा दूसरे इंसान पर भेजा जाता है। इसे Law of Conservation of Energy से समझा जा सकता है। जिसके अनुसार‘’Energy may be transformed from one form to another, but it can not be created or destroyed’’. हिंदी में कहा जाए तो ऊर्जा को न ही पैदा किया जा सकता है और न ही इसे खत्म किया जा सकता है।सिर्फ इसके स्वरूप को दूसरे स्वरूप मे बदला जा सकता है। यदि ऊर्जा का सकारात्मक इस्तेमाल है, तो नकारात्मक इस्तेमाल भी है। सनातन धर्म का अथर्ववेद सिर्फ सकारात्मक और नकारात्मक चीजों के लिए ऊर्जाओं के इस्तेमाल को ही समर्पित है। आपको यह समझना होगा कि ऊर्जा सिर्फ ऊर्जा होती है, वह न तो दैवीय होती है, न शैतानी। आप उससे कुछ भी बना सकते हैं – देवता या शैतान। यह बिजली की तरह होती है। क्या बिजली दैवीय या शैतानी, अच्छी या बुरी होती है? जब वह आपके घर को रोशन करती है, तो वह दिव्य होती है।
गीता में कहा गया है 
अर्जुन ने भी कृष्ण से यही सवाल पूछा था कि आपका यह कहना है कि हर चीज एक ही ऊर्जा से बनी है और हर एक चीज दैवीय है, अगर वही देवत्व दुर्योधन में भी है, तो वह ऐसे काम क्यों कर रहा है? कृष्ण ने जवाब दिया, ‘ईश्वर निर्गुण है,दिव्यता निर्गुण है। उसका अपना कोई गुण नहीं है।’ इसका अर्थ है कि वह बस विशुद्ध ऊर्जा है। आप उससे कुछ भी बना सकते हैं। जो बाघ आपको खाने आता है, उसमें भी वही ऊर्जा है और कोई देवता, जो आकर आपको बचा सकता है, उसमें भी वही ऊर्जा है। बस वे अलग-अलग तरीकों से काम कर रहे हैं।
कब किया जाता था इस्तेमाल विशेषज्ञ मानते हैं पुतले से किसी इंसान को तकलीफ पहुंचाना इस जादू का उद्देश्य नहीं है। इस जादू के लिए काला जादू शब्द भी गलत है, दरअसल, ये तंत्र की एक विधा है। जिसे भगवान शिव ने अपने भक्तों को दिया था। पुराने समय में इस तरह का पुतला बनाकर उस पर प्रयोग सिर्फ कहीं दूर बैठे रोगी के उपचार व परेशानियां दूर करने के लिए किया जाता था। उस पुतले पर रोगी का बाल बांधकर विशेष मंत्रों से उसके नाम के साथ जागृत किया जाता था। उसके बाद रोगी के जिस भी अंग में समस्या होती थी। पुतले के उसी अंग पर सुई को गड़ाकर विशेषज्ञ अपनी सकारात्मक ऊर्जा को वहां तक पहुंचाता था। कुछ समय तक ऐसा करने पर तकलीफ खत्म हो जाती थी। यही कारण है कि इसे रेकी और एक्यूप्रेशर का मिश्रण भी कहा जा सकता है। जिसमें अपनी आध्यात्मिक ऊर्जा की सहायता से किसी को जीवन दिया जा सकता है।
कब हुआ गलत इस्तेमाल कुछ स्वार्थी लोगों ने इस प्राचीन विधा को समाज के सामने गलत रूप में स्थापित किया। तभी से इसे काला जादू नाम दिया जाने लगा। दरअसल, उन्होंने अपनी ऊर्जा का उपयोग समाज को नुकसान पहुंचाने के लिए किया। गौरतलब है जिस तरह काले जादू की सहायता से सकारात्मक ऊर्जा पहुंचाकर किसी के रोग व परेशानी को दूर किया जा सकता है। ठीक उसी तरह सुई के माध्यम से किसी तक अपनी नकारात्मक ऊर्जा पहुंचाकर। उसे तकलीफ भी दी जा सकती है।


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Sunday, June 8, 2014

हनुमानजी के सामने शनिदेव बन गए थे स्त्री



हनुमानजी की पूजा से शनिदेव के कोप का सामना नहीं करना पड़ता है। कई लोगों के मन यह जिज्ञासा रहती है कि हनुमानजी की पूजा से शनि के दोष क्यों दूर होते हैं। हनुमानजी और शनिदेव से जुड़े कई प्रसंग शास्त्रों में बताए गए हैं। इन्हीं प्रसंगों में इस प्रश्न का उत्तर है कि हनुमानजी की पूजा से शनि क्यों प्रसन्न होते हैं। यहां एक ऐसे प्रसंग की जानकारी दी जा रही है, जहां हनुमानजी के सामने शनिदेव स्त्री बन गए थे। इस कथा का प्रमाण गुजरात में भावनगर के सारंगपुर में स्थित है। यहां हनुमानजी का मंदिर है जो कि सैकड़ों साल पुराना है। इस मंदिर में कष्टभंजन हनुमानजी विराजमान है। आगे दिए गए फोटो में पढ़िए इस मंदिर से जुड़ी खास बातें और जानिए शनिदेव ने हनुमानजी के सामने स्त्री का रूप क्यों धारण किया था... कष्टभंजन हनुमानजी सोने के सिंहासन पर विराजमान हैं और उन्हें महाराजाधिराज के नाम से भी जाना जाता है। यह मंदिर बहुत चमत्कारी है और यहां आने वाले श्रद्धालुओं की सभी मनोकामनाएं पूर्ण हो जाती हैं। यदि कुंडली में शनि दोष हो तो वह भी कष्टभंजन के दर्शन से दूर हो जाता है। इस मंदिर में हनुमानजी की प्रतिमा बहुत ही आकर्षक है। इस मूर्ति की खास बात यह है कि यहां हनुमानजी के पैरों में स्त्री रूप में शनिदेव स्थित हैं। सभी जानते हैं कि हनुमानजी स्त्रियों के प्रति विशेष आदर और सम्मान का भाव रखते हैं। ऐसे में उनके चरणों में किसी स्त्री का होना आश्यर्च की बात है। इस प्रतिमा के संबंध में एक कथा प्रचलित है। सारंगपुर में कष्टभंजन हनुमानजी के मंदिर का भवन काफी विशाल है। यह किसी किले के समान दिखाई देता है। मंदिर की सुंदरता और भव्यता देखते ही बनती है। हनुमानजी की प्रतिमा के आसपास वानर सेना दिखाई देती है और पैरों में स्त्री रूप में शनिदेव भी स्थित हैं। शनिदेव को हनुमानजी के सामने स्त्री रूप क्यों लेना पड़ा, इस संबंध में जो कथा प्रचलित है, वह इस प्रकार है... प्राचीन मान्यताओं के अनुसार एक समय शनिदेव का प्रकोप काफी बढ़ गया था। शनि के कोप से आम जनता भयंकर कष्टों का सामना कर रही थी। ऐसे में लोगों ने हनुमानजी से प्रार्थना की कि वे शनिदेव के कोप को शांत करें। बजरंग बली अपने भक्तों के कष्टों को दूर करने के लिए सदैव तत्पर रहते हैं और उस समय श्रद्धालुओं की प्रार्थना सुनकर वे शनि पर क्रोधित हो गए। जब शनिदेव को यह बात मालूम हुई कि हनुमानजी उन पर क्रोधित हैं और युद्ध करने के लिए उनकी ओर ही आ रहे हैं तो वे बहुत भयभीत हो गए। भयभीत शनिदेव ने हनुमानजी से बचने के लिए स्त्री रूप धारण कर लिया। शनिदेव जानते थे कि हनुमानजी बाल ब्रह्मचारी हैं और वे स्त्रियों पर हाथ नहीं उठाते हैं। हनुमानजी शनिदेव के सामने पहुंच गए, शनि स्त्री रूप में थे। तब शनि ने हनुमानजी के चरणों में गिरकर क्षमा याचना की और भक्तों पर से शनि का प्रकोप हटा लिया। तभी से हनुमानजी के भक्तों पर शनिदेव की तिरछी नजर का प्रकोप नहीं होता है। शनि दोषों से मुक्ति हेतु कष्टभंजन हनुमानजी के दर्शन के लिए बड़ी संख्या में श्रद्धालु यहां आते हैं। आगे जानिए हनुमानजी के कुछ ऐसे उपाय जो आप अपने घर पर या घर के आसपास किसी भी हनुमान मंदिर में कर सकते हैं... - हनुमानजी को प्रसन्न करने हेतु शनिवार को सूर्योदय के पहले यह उपाय करें। पीपल के ग्यारह पत्तें लेकर उन पर श्रीराम नाम लिखें। फिर इन पत्तों की माला बनाकर हनुमानजी को पहना दें। इस प्रयोग को गुप्त रखें। - किसी भी शुभ मुहूर्त में या मंगलवार या शनिवार को हनुमान मंदिर जाएं और अपने साथ नारियल लेकर जाएं। मंदिर में नारियल को अपने सिर पर सात बार वार लें। इसके बाद यह नारियल हनुमानजी के सामने फोड़ दें। इस उपाय से आपकी सभी बाधाएं दूर हो जाएंगी। हर मंगलवार और शनिवार को किसी भी हनुमान मंदिर में 11 काली उड़द के दाने, सिंदूर, चमेली का तेल, फूल, प्रसाद अर्पित करें। साथ ही सुंदरकांड का पाठ करें या समय अभाव हो तो हनुमान चालीसा का पाठ करें। हनुमानजी के पूजन में पवित्रता का पूरा ध्यान रखें। किसी भी प्रकार के अधार्मिक कर्मों से दूर रहें। घर के बड़े-बुजूर्गों सहित अन्य वृद्धजनों का सम्मान करें, उनका दिल न दुखाए।
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मां के पेट में क्या सोचता है शिशु

 किसी भी स्त्री के लिए वह क्षण बहुत गर्व का होता है, जब वह मां बनती है। माता के गर्भ में नौ महीनों तक शिशु का पालन-पोषण होता है। मेडिकल साइंस के अनुसार, गर्भावस्था के दौरान माता भोजन के रूप में जो भी ग्रहण करती है, उसी का अंश गर्भस्थ शिशु को भी मिलता है। यही बात हिंदू धर्मग्रंथों में भी बताई गई है। गरुड़ पुराण में शिशु के माता के गर्भ में आने से लेकर जन्म लेने तक का स्पष्ट विवरण दिया गया है। गरुड़ पुराण में भगवान विष्णु ने अपने परम भक्त और वाहन गरुड़ को जीवन-मृत्यु, स्वर्ग-नरक, पाप-पुण्य, मोक्ष पाने के उपाय आदि के बारे में विस्तार से बताया है। गरुड़ पुराण में यह भी बताया गया है कि शिशु को माता के गर्भ में क्या-क्या कष्ट भोगने पड़ते हैं और वह किस प्रकार भगवान का स्मरण करता है। गर्भस्थ शिशु के मन में क्या-क्या विचार आते हैं, ये भी गरुड़ पुराण में बताया गया है। - गरुड़ पुराण के अनुसार, स्त्रियों में ऋतुकाल आने से संतान की उत्पत्ति होती है। ऋतुकाल में तीन दिन स्त्रियां अपवित्र रहती हैं। ऋतुकाल में पहले दिन स्त्री चांडाली के समान, दूसरे दिन ब्रह्मघातिनी के समान तथा तीसरे दिन धोबिन के समान रहती है। इन तीन दिनों में नरक से आए हुए जीव उत्पन्न होते हैं। - ईश्वर से प्रेरित हुए कर्मों से शरीर धारण करने के लिए पुरुष के वीर्य-बिंदु के माध्यम से स्त्री के गर्भ में जीव प्रवेश करता है। एक रात्रि का जीव कोद (सूक्ष्म कण), पांच रात्रि का जीव बुदबुद (बुलबुले) तथा दस दिन का जीवन बदरीफल (बेर) के समान होता है। इसके बाद वह एक मांस- पिंड का आकार लेता हुआ अंडे के समान हो जाता है। - एक महीने में मस्तक, दूसरे महीने में हाथ आदि अंगों की रचना होती है। तीसरे महीने में नाखून, रोम, हड्डी, लिंग, नाक, कान, मुंह आदि अंग बन जाते हैं। चौथे महीने में त्वचा, मांस, रक्त, मेद, मज्जा का निर्माण होता है। पांचवें महीने में शिशु को भूख-प्यास लगने लगती है। छठे महीने में शिशु गर्भ की झिल्ली से ढककर माता के गर्भ में घूमने लगता है। - माता द्वारा खाए गए अन्न आदि से बढ़ता हुआ वह शिशु विष्ठा, मूत्र आदि के स्थान तथा जहां अनेक जीवों की उत्पत्ति होती है, ऐसे स्थान पर सोता है। वहां कृमियों के काटने से उसके सभी अंग कष्ट पाते हैं। इससे वह बार-बार बेहोश भी होता है। माता जो भी कड़वा, तीखा, रूखा, कसैला भोजन करती है, उसके स्पर्श से शिशु के कोमल अंगों को बहुत कष्ट होता है। - इसके बाद शिशु का मस्तक नीचे की ओर तथा पैर ऊपर की ओर हो जाते हैं। वह इधर-उधर हिल नहीं सकता। जिस प्रकार से पिंजरे में पक्षी रहता है, उसी प्रकार शिशु माता के गर्भ में रहता है। यहां शिशु सात धातुओं से बंधा हुआ भयभीत होकर हाथ जोड़ ईश्वर की (जिसने उसे गर्भ में स्थापित किया है) स्तुति करने लगता है। - सातवें महीने में उसे ज्ञान प्राप्ति होती है और वह सोचता है कि इस गर्भ से बाहर जाने पर कहीं ईश्वर को न भूल जाऊं। ऐसा सोचकर वह दुखी होता है और इधर-उधर घूमने लगता है। सातवें महीने में शिशु अत्यंत दुख से वैराग्य मानसिकता के साथ ईश्वर की स्तुति इस प्रकार करता है- लक्ष्मी के पति, जगदाधार, संसार को पालने वाले और जो तेरी शरण में आए, उसका पालन करने वाले भगवान विष्णु का शरणागत होता हूं। - गर्भस्थ शिशु भगवान विष्णु का स्मरण करता हुआ सोचता है कि मोहित होकर देहादि में और अभिमान कर जन्म-मरण को प्राप्त होता हूं। मैंने परिवार के लिए शुभ काम किए, वे लोग तो खा-पीकर चले गए। मैं अकेला दु:ख भोग रहा हूं। इस योनि से अलग हो तुम्हारे चरणों का स्मरण कर फिर ऐसे उपाय करूंगा, जिससे मैं मुक्ति को प्राप्त कर सकूं। - फिर गर्भस्थ शिशु सोचता है मैं महादुखी विष्ठा व मूत्र के कुएं में हूं और भूख से व्याकुल इस गर्भ से अलग होने की इच्छा करता हूं। हे भगवन्! मुझे कब बाहर निकालोगे। सभी पर दया करने वाले ईश्वर ने मुझे ये ज्ञान दिया है, उस ईश्वर की मैं शरण में जाता हूं। इसलिए मेरा पुन: जन्म-मरण होना उचित नहीं है। - गरुड़ पुराण के अनुसार, फिर माता के गर्भ में पल रहा शिशु भगवान से कहता है कि मैं इस गर्भ से अलग होने की इच्छा नहीं करता, क्योंकि बाहर जाने से पापकर्म करने पड़ते हैं, जिससे नरकादि प्राप्त होते हैं। इस कारण बड़े दुख से व्याकुल हूं, फिर भी दुखरहित हो आपके चरणों का आश्रय लेकर मैं आत्मा का संसार से उद्धार करूंगा। - इस प्रकार गर्भ में विचार कर शिशु दस महीने तक स्तुति करता हुआ नीचे मुख से प्रसूति के समय वायु से तत्काल बाहर निकलता है। प्रसूति की हवा से उसी समय शिशु सांस लेने लगता है तथा अब उसे किसी बात का ज्ञान भी नहीं रहता। गर्भ से अलग होकर वह ज्ञानरहित हो जाता है। इसी कारण जन्म के समय वह रोता है। - गरुड़ पुराण के अनुसार जिस प्रकार बुद्धि गर्भ में, रोगादि में, श्मशान में, पुराण आदि सुनने में रहती है, वैसी बुद्धि सदा रहे। तब इस संसार के बंधन से कौन नहीं छूट सकता। जिस समय शिशु कर्म योग द्वारा गर्भ से बाहर आता है, उस समय भगवान विष्णु की माया से वह मोहित हो जाता है। माया से मोहित वह कुछ भी नहीं बोल सकता और बाल्यावस्था के दुख भी पराधीन होकर भोगता है।

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यमलोक कितने दिनों बाद आत्मा पहुंचती है

 पुराणों के अनुसार जो मनुष्य अच्छे कर्म करता है, उसके प्राण हरने देवदूत आते हैं और उसे स्वर्ग ले जाते हैं, जबकि जो मनुष्य जीवन भर बुरे कामों में लगा रहता है, उसके प्राण हरने यमदूत आते हैं और उसे नरक ले जाते हैं, लेकिन उसके पहले उस जीवात्मा को यमलोक ले जाया जाता है, जहां यमराज उसके पापों के आधार पर उसे सजा देते हैं। मृत्यु के बाद जीवात्मा यमलोक तक किस प्रकार जाती है। इसका विस्तृत वर्णन गरुड़ पुराण में है। गरुड़ पुराण में यह भी बताया गया है कि किस प्रकार मनुष्य के प्राण निकलते हैं और किस तरह वह प्राण पिंडदान प्राप्त कर प्रेत का रूप लेते हैं। जानिए यमदूत किस प्रकार किसी मनुष्य के प्राण निकालते हैं और उसे किस प्रकार यातना देते हुए यमलोक तक ले जाते हैं .गरुड़ पुराण के अनुसार जिस मनुष्य की मृत्यु होने वाली होती है, वह बोलने की इच्छा होने पर भी बोल नहीं पाता है। अंत समय में उसमें दिव्यदृष्टि उत्पन्न होती है और वह संपूर्ण संसार को एकरूप समझने लगता है। उसकी सभी इंद्रियां नष्ट हो जाती हैं और वह जड़ अवस्था में हो जाता है, यानी हिलने-डुलने में असमर्थ हो जाता है। इसके बाद उसके मुंह से झाग निकलने लगते हैं और लार टपकने लगती है। पापी पुरुष के प्राण नीचे के मार्ग से निकलते हैं। - उस समय दो यमदूत आते हैं। वे बड़ी भयानक क्रोधवाली आंखों वाले होते हैं। उनके हाथ में पाशदंड रहता है। वे अपने दांतों से कट-कट करते हैं। यमदूतों के कौए जैसे काले बाल होते हैं। उनका मुंह बहुत भयानक होता है, नाखून ही उनके शस्त्र होते हैं। यमराज के दूतों को देखकर प्राणी भयभीत होकर मल-मूत्र त्याग करने लग जाता है। उस समय शरीर से अंगूष्ठमात्र (अंगूठे के बराबर) जीव हा हा शब्द करता हुआ निकलता है, जिसे यमदूत पकड़ लेते हैं। - यमराज के दूत उस शरीर को पकड़कर पाश गले में बांधकर उसी क्षण यमलोक ले जाते हैं, जैसे- राजा के सैनिक अपराध करने वाले को पकड़ कर ले जाते हैं। उस पापी जीवात्मा को रास्ते में थकने पर भी यमराज के दूत भयभीत करते हैं और उसे नरक में मिलने वाले दुखों के बारे में बार-बार बताते हैं। यमदूतों की ऐसी भयानक बातें सुनकर पापात्मा जोर-जोर से रोने लगती है, किंतु यमदूत उस पर बिल्कुल भी दया नहीं करते हैं। - इसके बाद वह अंगूठे के बराबर शरीर यमदूतों से डरता और कांपता हुआ, कुत्तों के काटने से दु:खी हो अपने किए हुए पापों को याद करते हुए चलता है। आग की तरह गर्म हवा तथा गर्म बालू पर वह जीव चल नहीं पाता है और वह भूख-प्यास से भी व्याकुल हो उठता है। तब यमदूत उसकी पीठ पर चाबुक मारते हुए उसे आगे ले जाते हैं। वह जीव जगह-जगह गिरता है और बेहोश हो जाता है। फिर उठ कर चलने लगता है। इस प्रकार यमदूत उस पापी को अंधकार वाले रास्ते से यमलोक ले जाते हैं। गरुड़ पुराण के अनुसार यमलोक 99 हजार योजन (योजन वैदिक काल की लंबाई मापने की इकाई है। एक योजन बराबर होता है चार कोस यानी 13-16 कि.मी)। वहां यमदूत पापी जीव को थोड़ी ही देर में ले जाते हैं। इसके बाद यमदूत उसेभयानक यातना देते हैं। इसके बाद वह जीवात्मा यमराज की आज्ञा से यमदूतों के साथ पुन: अपने घर आती है। - घर आकर वह जीवात्मा अपने शरीर में पुन: प्रवेश करने की इच्छा करती है परंतु यमदूत के बंधन से वह मुक्त नहीं हो पाती और भूख-प्यास के कारण रोती है। पुत्र आदि जो पिंड और अंत समय में दान करते हैं, उससे भी प्राणी को तृप्ति नहीं होती क्योंकि पापी पुरुषों को दान, श्रद्धांजलि द्वारा तृप्ति नहीं मिलती। इस प्रकार भूख-प्यास से युक्त होकर वह जीव यमलोक जाता है। - इसके बाद पापात्मा के पुत्र आदि परिजन यदि पिंडदान नहीं देते हैं, तो वह प्रेत रूप हो जाती है और लंबे समय तक निर्जन वन में रहती है। इतना समय बीतने के बाद भी कर्म को भोगना ही पड़ता है, क्योंकि प्राणी नरक यातना भोगे बिना उसे मनुष्य शरीर नहीं प्राप्त होता। गरुड़ पुराण के अनुसार मनुष्य की मृत्यु के बाद 10 दिन तक पिंडदान अवश्य करना चाहिए। उस पिंडदान के प्रतिदिन चार भाग हो जाते हैं। उसमें दो भाग तो पंचमहाभूत देह कोपुष्टि देने वाले होते हैं, तीसरा भाग यमदूत का होता है तथा चौथा भाग प्रेत खाता है। नौवें दिन पिंडदान करने से प्रेत का शरीर बनता है, दसवें दिन पिंडदान देने से उस शरीर को चलने की शक्ति प्राप्त होती है। - गरुड़ पुराण के अनुसार शव को जलाने के बाद पिंड से हाथ के बराबर का शरीर उत्पन्न होता है। वही यमलोक के मार्ग में शुभ-अशुभ फल को भोगता है। पहले दिन पिंडदान से मूर्धा (सिर), दूसरे दिन से गर्दन और कंधे, तीसरे दिन से ह्रदय, चौथे दिन के पिंड से पीठ, पांचवें दिन से नाभि, छठे और सातवें दिन से कमर और नीचे का भाग, आठवें दिन से पैर, नौवें और दसवें दिन से भूख-प्यास आदि उत्पन्न होती है। ऐसे पिंड शरीर को धारण कर भूख-प्यास से व्याकुल प्रेत ग्यारहवें और बारहवें दिन का भोजन करता है। - यमदूतों द्वारा तेरहवें दिन प्रेत को बंदर की तरह पकड़ लिया जाता है। इसके बाद वह प्रेत भूख-प्यास से तड़पता हुआ यमलोक अकेला ही जाता है। यमलोक तक पहुंचने का रास्ता वैतरणी नदी को छोड़कर छियासी हजार योजन है। उस मार्ग पर प्रेत प्रतिदिन २०० योजन चलता है। इस प्रकार वह 47 दिन लगातार चलकर यमलोक पहुंचता है। इस प्रकार मार्ग में सोलह पुरियों को पार कर पापी जीव यमराज के घर जाता है। - इन सोलह पुरियों के नाम इस प्रकार हंै- सौम्य, सौरिपुर, नगेंद्रभवन, गंधर्व, शैलागम, क्रौंच, क्रूरपुर, विचित्रभवन, बह्वापाद, दु:खद, नानाक्रंदपुर, सुतप्तभवन, रौद्र, पयोवर्षण, शीतढ्य, बहुभीति। इन सोलह पुरियों को पार करने के बाद आगे यमराजपुरी आती है। पापी प्राणी यम, पाश में बंधे हुए मार्ग में हाहाकार करते हुए अपने घर को छोड़कर यमराज पुरी जाते हैं।


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Saturday, January 18, 2014

33 प्रकार के देवताओं को 33 करोड़ देवी-देवता माना जाता है

हमारे 33 करोड़ देवी-देवता हैं, यानी देवी-देवताओं की संख्या 33 करोड़ बताई जाती है। ये बात कम ही लोग जानते हैं कि 33 करोड़ देवी-देवता कैसे बताए गए हैं और इनमें कौन-कौन से देवता शामिल हैं। शास्त्रों के अनुसार देवताओं की संख्या 33 कोटि बताई गई हैं। यहां कोटि शब्द का अर्थ है प्रकार, यानी 33 प्रकार के देवता बताए गए हैं। इसी शब्द 33 कोटि को 33 करोड़ माना जाने लगा है। पुराने समय से ही 33 कोटि देवता की गणना 33 करोड़ देवी-देवताओं के रूप में की जाती रही है। इन 33 कोटियों में आठ वसु, ग्यारह रुद्र, बारह आदित्य, इंद्र और प्रजापति शामिल हैं। इन्हीं देवताओं को 33 करोड़ देवी-देवता माना गया है। यहां इंद्र और प्रजापति के स्थान पर कुछ विद्वानों द्वारा दो अश्विनी कुमारों को शामिल किया जाता है। इस प्रकार कुल 33 करोड़ देवता नहीं हैं बल्कि 33 प्रकार के प्रमुख देवता बताए गए हैं। अष्ट वसु, बारह आदित्य, 11 रुद्र, इंद्र और प्रजापति सहित ये 33 प्रमुख देवता कौन-कौन हैं... ये हैं 12 आदित्य के नाम - धाता - मित - अर्यमा - शक्र - वरुण - अंश - भग - विवस्वान - पूषा - सविता - त्वष्टा - विष्णु ये हैं अष्ट वसु के नाम - धर - ध्रुव - सोम - अह - अनिल - अनल - प्रत्युष - प्रभाष ये हैं ग्यारह रुद्र - हर - बहुरूप - त्र्यम्बक - अपराजिता - वृषाकपि - शम्भू - कपर्दी - रेवत - म्रग्व्यध - शर्व - कपाली बारह आदित्य, ग्यारह रुद्र और अष्ट वसु के साथ ही 2 अश्विनी कुमार हैं। इन सभी देवताओं की संख्या का योग 33 है और इन्हीं 33 प्रकार के देवताओं को 33 करोड़ देवी-देवता माना जाता है। कोटि शब्द के दो अर्थ हैं पहला है करोड़ और दूसरा अर्थ है प्रकार। अत: यहां कोटि शब्द का अर्थ करोड़ माना जाने लगा, जिससे देवताओं की संख्या 33 करोड़ हो गई।

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गरुण पुराण

  सुखी और समृद्धिशाली जीवन के लिए शास्त्रों में कई महत्वपूर्ण सूत्र और परंपराएं बताई गई हैं। इन सूत्रों का पालन करने पर हमारा जीवन सुखी और समृद्धिशाली हो सकता है। व्यक्ति की किसी भी प्रकार की कमजोरियां या परेशानियां सताती नहीं हैं। कुछ बातें ज्ञान की हैं जिन्हें हमेशा ध्यान रखना हमारे लिए फायदेमंद रहता है।
 गरुण पुराण एक ऐसा ग्रंथ है 
जिसमें जीवन और मृत्यु के रहस्यों का उल्लेख किया गया है। हमारे किन कर्मों का क्या फल हमें प्राप्त होता है, यह गरुण पुराण में बताया गया है। इसी पुराण में चार बातें या काम ऐसे बताए गए हैं जिन्हें अधूरा छोडऩा नुकसानदायक हो सकता है। इनमें से कुछ बातें ऐसी हैं जिन्हें शेष छोड़ दिया जाए तो संकट तक खड़ा हो सकता है। 
चार काम हैं जिन्हें बीच में नहीं छोडऩा चाहिए- 
गरुण पुराण के अनुसार ऋण या उधार लिया गया पैसा किसी भी स्थिति में पूरा लौटा देना चाहिए। यदि ऋण पूरा नहीं उतारा जाता है तो वह पुन: ब्याज के कारण बढऩे लगता है। यदि किसी व्यक्ति से ऋण लिया जाए और पूरा न चुकाया जाए तो रिश्तों दरार पडऩे की पूरी संभावनाएं रहती हैं। अत: ऐसी स्थिति से बचने के लिए ऋण का शत-प्रतिशत निपटारा जल्दी से जल्दी कर देना चाहिए। यदि कोई व्यक्ति बीमार है तो उसे दवाइयों की मदद से और आवश्यक परहेज से रोग को जड़ से मिटा देना चाहिए। जो लोग पूरी तरह स्वस्थ न होते हुए भी दवाइयां लेना बंद कर देते हैं तो उन्हें भविष्य में पुन: बीमारी हो सकती है। सामान्यत: बीमारी का पुन: लौटना जान का खतरा ही होता है। अत: बीमारी की अवस्था में दवाइयां लेते रहना चाहिए, बीमारी के कीटाणुओं को जीवित नहीं रहने देना चाहिए। यदि आपका कोई शत्रु है और वह बार-बार प्रयास करने के बाद भी शत्रुता समाप्त नहीं कर रहा है तो उसे किसी भी तरह शांत कर देना चाहिए। क्योंकि शत्रु हमेशा ही हमारा अहित करने की योजनाएं बनाते रहेंगे और शत्रु बढ़ाते रहेंगे। शत्रुता का नाश करने पर ही जीवन से भय का नाश हो सकता है। यदि कहीं आग लग रही है तो आग को भी पूरी तरह बुझा देना चाहिए। अन्यथा छोटी सी चिंगारी भी पुन: बड़ी आग में बदल सकती है और जान और माल को नुकसान पहुंचा सकती है। गरुण पुराण के अनुसार यदि कोई व्यक्ति मनोवांछित फल प्राप्त नहीं कर पाता है तो वह अज्ञानता वश क्रोधित होता है। जब व्यक्ति क्रोधित होता है तो उससे चिन्ता उत्पन्न होती है। चिंतित रहने वाले व्यक्ति के मन में काम और क्रोध अधिक बढ़ते हैं। ऐसी स्थिति में व्यक्ति कई बार अनैतिक कर्म कर सकता है। अत: हमें हर परिस्थिति में संतोषपूर्वक जीवन व्यतित करना चाहिए। जो व्यक्ति कामवासना में लिप्त रहते हैं वे स्वयं के स्वार्थों की पूर्ति के लिए अन्य कामी व्यक्ति के साथ विरोध करते हैं। ऐसे लोग दूसरों के नाश के लिए सदैव मनन करते रहते हैं। जब एक दुर्बल कामी पुरुष दूसरे बलवान कामी से बैर करता है तो वह अवश्य ही मृत्यु को प्राप्त हो जाता है। जिस प्रकार एक हाथी छोटे-छोटे जीवों नष्ट कर देता है ठीक इसी प्रकार बलवान कामी पुरुष निर्बल कामी पुरुष के प्राणों का हरण कर लेता है। जो व्यक्ति मूर्ख होता है वह इंसानियत का नाश करने में लगा रहता है। दूसरों को अपनी मूर्खतापूर्ण बातों से ठेस पहुंचाने का प्रयत्न करता है। ऐसे मूर्ख लोग भयंकर पापी होते हैं। गरुण पुराण के अनुसार इन लोगों को युवा अवस्था में दुखों का सामना करना पड़ता है और इनका बुढ़ापा भी गंभीर बीमारियों के साथ गुजरता है। मूर्ख व्यक्ति की आत्मा देह त्याग के बाद नरक में जाती है। कई प्रकार यातनाओं को झेलने के बाद वह आत्मा पुन: धरती पर देह धारण करती है। यह चक्र अनवरत चलता रहता है। मूर्ख व्यक्ति की आत्मा को वैराग्य प्राप्त नहीं हो पाता है और ना ही ऐसे लोग भगवान की भक्ति कर पाते हैं।

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16 संस्कार

  शास्त्रों के अनुसार मनुष्य जीवन के लिए कुछ आवश्यक नियम बनाए गए हैं जिनका पालन करना हर स्त्री और पुरुष दोनों के लिए आवश्यक माना गया है। शास्त्रों में जीवन के सोलह संस्कार बताए गए हैं। इन सभी संस्कारों का पालन करना शास्त्रों ने जरूरी होता है। ये सभी 16 संस्कार व्यक्ति के जन्म से मृत्यु तक अलग-अलग समय पर किए जाते हैं। प्राचीन काल से ही इन सोलह संस्कारों के निर्वहन की परंपरा चली आ रही है। हर संस्कार का अपना अलग महत्व है। जो व्यक्ति इन सोलह संस्कारों का निर्वहन नहीं करता है उसका जीवन अधूरा ही माना जाता है। आज के समय में काफी अधिक ऐसे लोग हैं जो इन संस्कारों के विषय में जानते नहीं हैं। ये सोलह संस्कार कौन-कौन से हैं और इनका हमारे जीवन में क्या महत्व है,  कर्णवेध संस्कार- इसका अर्थ है- कान छेदना। प्राचीन परंपरा के अनुसार शिशु के कान और नाक भी छेदे जाते थे। इसके दो कारण हैं, एक- आभूषण पहनने के लिए। दूसरा- कान छेदने से एक्यूपंक्चर होता है। इससे मस्तिष्क तक जाने वाली नसों में रक्त का प्रवाह ठीक होता है। इस संस्कार से श्रवण शक्ति बढ़ती है और कई रोगों की रोकथाम हो जाती है। उपनयन या यज्ञोपवित संस्कार- उप यानी पास और नयन यानी ले जाना। गुरु के पास ले जाने का अर्थ है उपनयन संस्कार। आज भी यह परंपरा है। जनेऊ यानी यज्ञोपवित में तीन सूत्र होते हैं। ये तीन देवता- ब्रह्मा, विष्णु, महेश के प्रतीक हैं। इस संस्कार से शिशु को बल, ऊर्जा और तेज प्राप्त होता है। वातावरण की नकारात्मक ऊर्जा से शिशु का बचाव होता है। वेदारंभ संस्कार- इसके अंतर्गत व्यक्ति को वेदों का ज्ञान दिया जाता है। इस संस्कार से ही शिशु को अच्छाई और बुराई में फर्क करने की समझ आती है। वेदारंभ संस्कार से ही शिशु को जीवन जीने की सही कला का ज्ञान प्राप्त होता है। केशांत संस्कार- केशांत संस्कार अर्थ है केश यानी बालों का अंत करना, उन्हें समाप्त करना। विद्या अध्ययन से पूर्व भी केशांत किया जाता है। मान्यता है गर्भ से बाहर आने के बाद बालक के सिर पर माता-पिता के दिए बाल ही रहते हैं। इन्हें काटने से शुद्धि होती है। शिक्षा प्राप्ति के पहले शुद्धि जरूरी है, ताकि मस्तिष्क ठीक दिशा में काम करें। पुराने में गुरुकुल से शिक्षा प्राप्ति के बाद केशांत संस्कार किया जाता था। समावर्तन संस्कार- समावर्तन संस्कार अर्थ है फिर से लौटना। आश्रम या गुरुकुल से शिक्षा प्राप्ति के बाद व्यक्ति को फिर से समाज में लाने के लिए यह संस्कार किया जाता था। इसका आशय है ब्रह्मचारी व्यक्ति को मनोवैज्ञानिक रूप से जीवन के संघर्षों के लिए तैयार किया जाना। विवाह संस्कार- यह धर्म का साधन है। विवाह संस्कार सर्वाधिक महत्वपूर्ण संस्कार माना जाता है। इसके अंतर्गत वर और वधू दोनों साथ रहकर धर्म के पालन का संकल्प लेते हुए विवाह करते हैं। विवाह के द्वारा सृष्टि के विकास में योगदान दिया जाता है। संतान उत्पन्न की जाती है और इसी संस्कार से व्यक्ति पितृऋण से मुक्त होता है। अंत्येष्टी संस्कार- अंत्येष्टि संस्कार इसका अर्थ है अंतिम संस्कार। शास्त्रों के अनुसार इंसान की मृत्यु यानि देह त्याग के बाद मृत शरीर अग्नि को समर्पित किया जाता है। आज भी शवयात्रा के आगे घर से अग्नि जलाकर ले जाई जाती है। इसी से चिता जलाई जाती है। इसका आशय यह है विवाह के बाद व्यक्ति ने जो अग्नि घर में जलाई थी उसी से उसके अंतिम यज्ञ की अग्नि जलाई जाती है। गर्भाधान संस्कार- यह ऐसा संस्कार है जिससे हमें योग्य, गुणवान और आदर्श संतान प्राप्त होती है। शास्त्रों के अनुसार मनचाही संतान प्राप्त के लिए गर्भधारण संस्कार किया जाता है। इसी संस्कार से वंश वृद्धि होती है। मनुष्य जीवन का यही भी एक अनिवार्य उद्देश्य है जिसके अंतर्गत मनुष्य को संतान उत्पन्न करनी चाहिए। पुंसवन संस्कार- गर्भस्थ शिशु के बौद्धिक और मानसिक विकास के लिए यह संस्कार किया जाता है। पुंसवन संस्कार के प्रमुख लाभ ये है कि इससे स्वस्थ, सुंदर गुणवान संतान की प्राप्ति होती है। इस संस्कार के अंतर्गत गर्भस्थ शिशु की माता को अपने आहार और आचरण में विशेष ध्यान चाहिए। यह संस्कार गर्भाधान के तीसरे माह में किया जाना चाहिए। सीमन्तोन्नयन संस्कार- यह संस्कार गर्भ के चौथे, छठवें और आठवें महीने में किया जाता है। इस समय गर्भ में पल रहा बच्चा सीखने के काबिल हो जाता है। उसमें अच्छे गुण, स्वभाव और कर्म का ज्ञान आए, इसके लिए मां उसी प्रकार आचार-विचार, रहन-सहन और व्यवहार करती है। जातकर्म संस्कार- बालक का जन्म होते ही इस संस्कार को करने से शिशु के कई प्रकार के दोष दूर होते हैं। इसके अंतर्गत शिशु को शहद और घी चटाया जाता है साथ ही वैदिक मंत्रों का उच्चारण किया जाता है ताकि बच्चा स्वस्थ और दीर्घायु हो। नामकरण संस्कार- शिशु के जन्म के बाद 11वें दिन नामकरण संस्कार किया जाता है। शिशु के जन्म के बाद दस दिनों तक सूतक माना जाता है, इसी वजह से नामकरण संस्कार 11वें दिन किया जाता है। ब्राह्मण द्वारा ज्योतिष शास्त्र के अनुसार बच्चे का नाम तय किया जाता है। ज्योतिष के अनुसार नाम के आधार पर शिशु के भविष्य संबंधित बातों की जानकारी प्राप्त की जा सकती है। इसी वजह से नामकरण संस्कार का विशेष महत्व है। निष्क्रमण संस्कार- निष्क्रमण का अर्थ है बाहर निकालना। शिशु के जन्म के चौथे महीने में यह संस्कार किया जाता है। हमारा शरीर पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश जिन्हें पंचभूत कहा जाता है, से बना है। इसलिए पिता इन देवताओं से बच्चे के कल्याण की प्रार्थना करते हैं। साथ ही कामना करते हैं कि शिशु दीर्घायु रहे और स्वस्थ रहे। शिशु को बाहरी वातावरण से परिचित करना चौथे माह से शुरू कर देना चाहिए। शिशु को सूर्य और चंद्र की रोशनी दिखाना चाहिए। ऐसा करने पर शिशु यशस्वी और दीर्घायु होता है। अन्नप्राशन संस्कार- यह संस्कार बच्चे के दांत निकलने के समय अर्थात 6-7 महीने की उम्र में किया जाता है। इस संस्कार के बाद बच्चे को अन्न खिलाने की शुरुआत हो जाती है। इसका संस्कार का मुख्य उद्देश्य शिशु के मानसिक और शारीरिक विकास को बढ़ाना है। इससे पूर्व शिशु का भोजन सिर्फ पेय पदार्थ जैसे दूध और जल पर आधारित है। इस संस्कार के बाद शिशु को अन्न देना भी शुरू कर दिया जाता है। मुंडन संस्कार- जब शिशु की आयु एक वर्ष हो जाती है तब या तीन वर्ष की आयु में या पांचवे या सातवे वर्ष की आयु में बच्चे के बाल उतारे जाते हैं जिसे मुंडन संस्कार कहा जाता है। इस संस्कार से बच्चे का सिर मजबूत होता है तथा बुद्धि तेज होती है। साथ ही शिशु के बालों में चिपके कीटाणु नष्ट होते हैं जिससे शिशु को स्वास्थ्य लाभ प्राप्त होता है। जन्म के समय से उत्पन्न अपवित्र केशों को मुंडन संस्कार द्वारा हटाया जाता है। विद्या आरंभ संस्कार- इस संस्कार के माध्यम से शिशु को उचित शिक्षा दी जाती है। शिशु को शिक्षा के प्रारंभिक स्तर से परिचित कराया जाता है। कुछ लोग मुंडन संस्कार से पहले ही शिशु को शिक्षा देना प्रारंभ कर देते हैं, वहीं दूसरी ओर कुछ लोग मुंडन संस्कार के बाद शिक्षण आरंभ करते हैं। प्राचीन समय में शिशु को विद्या के लिए गुरुकुल भेजने की परंपरा थी।

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शुभ और लाभ

 जब भी घर में कोई मुख्य द्वार के दोनों ओर शुभ और लाभ लिखा जाता है। हर मांगलिक कार्य में स्वस्तिक बनाने के साथ ही शुभ-लाभ भी लिखा जाता है। सिंदूर या कुमकुम से शुभ और लाभ लिखने के पीछे ऐसी मान्यता है कि इससे श्रीगणेश और महालक्ष्मी सहित सभी देवी-देवता प्रसन्न होते हैं। शास्त्रों अनुसार गणेशजी के दो पुत्र माने गए हैं, एक क्षेम अर्थात शुभ और दूसरे पुत्र का नाम है लाभ। घर के बाहर शुभ-लाभ लिखने का मतलब यही है कि हमारे घर में सुख और समृद्धि सदैव बनी रहे। ऐसी प्रार्थना ईश्वर से की जाती है। शुभ (क्षेम) लिखने का भाव यह है कि हम प्रार्थना करते हैं कि जिन साधनों, कला या ज्ञान से धन और यश प्राप्त हो रहा है वह सदैव बना रहे। लाभ लिखने का भाव यह है कि भगवान से हम प्रार्थना करते हैं कि हमारे घर की आय अथवा धन हमेशा बढ़ता रहे, लाभ होता रहे। श्रीगणेश की कृपा से हमारा व्यवसाय और स्रोत सदैव बढ़ते रहे।


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Thursday, August 15, 2013

TOTKAs

Take a feather of crow which should not be taken out deliberately.. Take only the one which comes out naturally. Then blow air from mouth on it and chant this mantra simultaneously om kaakbhushandi namah sarvajan mohay mohay vashya vashya kuru kuru swaahaa. Do as this for 108 times. Then burn it and collect ashes of it. Then place ashes in front and give the acense of Loban dhup to it and again chant the same mantra without any rosary facing towards south direction. Then do the tilak of this ash for 7 consecutive days. By doing this you will everyone enamoured towards you.

By keeping peacock feather in your worship area it enhances the prosperity in life.

By chanting this mantra Om namo kaalraatri sarvashatru naashay namah on donkeys teeth for 108 times and entomb under lonely place can relieve you from all your enemies.

If you found owl feather and then if you chant this mantra Om ullukana vidhveshay phat for 1000 times and throw it at away at any house can create malicious in that house.

If you make a lamp from the cotton of calotropis gigantean plant (a medicinal plant) and flamed it at any Lord shiva temple can make him happy. By doing such act the planetary malefic effects would get away.

The root of Harebell keeps quite important in itself, by establishing it in house and worshipping goddess Mahakali and chanting the Beej mantra Kreem can relieve you from financial crisis.

Plant the creeping leaves of undefeated plant at your house. Give it incense on daily basis and chant the mantra Om mahalaxmi vaanchitaarth pooray poray namah for 108 times can complete your wishes.

At any lonely place just chant this mantra Pret moksham pradombhavah  for 11 times and keep  sweet kheer and water their itself. Do it for three consecutive days will definitely complete your wish.

While incensing use the sandal wood piece and then flame it in house. This will keep your home happy.

At any active shrine or grave place distributing sweets is termed as very auspicious. Well this is mentioned in ancient books also. This leads to progress in many ways.



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